Tuesday 18 February 2014

..........और क्या है बाकी ??



     सुबह दरवाज़े की घंटी की आवाज से आँखें खुली नरेन्द्र की ...और उसने खिड़की से झाँककर देखा, तो दूध वाला खड़ा था । पिछले तीन महीने का हिसाब बाकी था  ...........पर उस दिन तो जैसे उसने सब्र ही खो दिया ! बजाये चला जा रहा था लगातार .......घंटी पर घंटी । जब नरेंद्र ने दरवाजा न खोला तो चिढ़ कर कुछ बड़बड़ाते हुये चला गया ।

     फिर बहुत देर नरेंद्र बाहर न निकला ....जब आधे घंटे से अधिक हो गये तो उसने दरवाजा खोल कर चुपके से दूध उठा लिया और फिर धीरे से दरवाज़ा बंद कर लिया ।

     अभी चाय का कप ले कर बैठा ही था कि सेल फोन बज पड़ा । वो फोन की तरफ बढा भी नहीं क्यूँकि जानता था कि कोई कर्जा-वसूली के लिए भली-बुरी सुनाने वाला ही होगा......क्यूँकि बुरे दिन आने के बाद, कभी करीबी लोगों की गिनती में आने वालों रिश्तेदारों और यारों-दोस्तों ने दूरियाँ बना ली थीं.....औपचारिक कुशल-क्षेम लेने से भी कतराते थे अब वो ……कि कहीं सामने से किसी मदद की प्रत्याशा ना हो जाए ! अक्सर आने वाली धमकियों से डरकर नरेन्द्र ने अपनी पत्नी और बच्चे को ससुराल भेज दिया था |

     थोड़ी ही देर बाद दरवाजे की निचली सांस से पेपर खिसक कर आया । नरेंद्र फिर सोफे के ऊपर पैर जमा कर बैठ गया । ज्यों ही साइकिल के स्टैंड से उतरने की आवाज आई तो खिड़की से कैरियर पर अखबार लादे लड़के को जाते देख रहा था ।

     अखबार की तरफ उसने नजर भी न दी । अखबार की तह के भीतर से झाँक रही एक विज्ञापन की रंगीन पर्ची को उठाया । देख कर पहले तो मुस्कुराया, फिर उसकी आँख नम हो गईं । ऐसे ही नये-नये जतन होते थे उसके भी, अपने व्यापार को नई दिशा देने के लिए । मकान गिरवी रख कर मोटी रकम कर्जे में ली थी । मशीने और लेबर बढ़ाये...काम आगे बढ़ाने के लिए ....उन सभी को याद करने लगा । वो अधिकारी भी याद आये, जो बिन घूस के दफ्तरों में घुसने न देते थे और वो टेंडर भी ...जिसे पाने के लिए उसने बिचौलियों को उनकी मर्जी मुताबिक पैसा खिलाया था । उसके मन में उठते भावों से विचार कौंधा :- "आँख के सामने जैसे भुन्गे मचलते हैं ....वैसे ही वो सारे थे, जो बुरा फंसता देख किनारा कर गए !" उसे कर्जें की वो तमाम रकम याद आईं, जिन्हें चुकाने के लिए उसके पास नीयत तो है पर फूटी कौड़ी नही ।

     तभी किसी जीप के रुकने की तेज़ आवाज़ सुनाई दी । उसने देखा जीप से उतर कर चार हट्टे-कट्टे पहलवान जैसे बंदे दाखिल हुए बिल्डिंग में ....सहम गया वो उन्हें देख कर ।

     सीढ़ियों पर उनकी पदचाप नरेंद्र की रक्त-चाप गति बढ़ा रही थी । तेज पसीने की धार से भीग गया वो । कुछ ही क्षण में चारों बंदे दरवाजा पीटते हुये चीख-चीख कर गालियाँ बरसाने लगे । पड़ोसियों का भी दिल दहल गया । अन्दर दीवार से सट कर, बुत सा बेजान खड़ा था नरेंद्र । जब उन गुंडों के शब्दकोष की सारी गालियाँ खत्म हो गईं तब लातों की तेज़ बौछार दरवाजे पर करने लगे वो । दरवाजे की तरफ नरेंद्र ने देखा, कुण्डियाँ हिल रही थीं और अब कि तब .....टूटने को ही थीं ! पड़ोसियों की बढ़ती भीड़ देख, जाने क्या सोच कर उनके प्रहार शांत हुए । फिर कर्जे का पूरा ब्योरा उन्होंने उधर खड़े पड़ोसियों को सुना दिया ।

     पहले ही मकान, जेवर और खेती जा चुकी थी ....अब कैसे वो क़र्ज़-अदायगी का दिलासा दे इनको .....? इसी सोच ने जंजीरें डाल दीं थीं, नरेंद्र के पैरों में और वो अपनी जगह से टस से मस न हुआ ।

     कुछ देर बाद वो लोग थक कर चले गए । पड़ोसियों के जो मन आया, वो भी बोलते हुये उधर से चले गए ।

     देर तक उसी हालत में सुध-बुध खोया सा खड़ा रहा नरेन्द्र .....और जब होश आया तो उसके कदम एक कमरे की तरफ मुड़ गए । उधर अपने बच्चे की तस्वीर को टप-टप टपकते आँसुओं से जैसे धो ही दिया उसने । फिर अलमारी में रखी साड़ियों को जैसे छू कर कुछ महसूस किया ....फिर अचानक उधर रखी एक साड़ी उठा कर उसने सीलिंग फैन पर बाँध दी ।

     काफी देर तक हिम्मत को बटोर कर, समझाता रहा वो खुद को, कि क्या मौत ही इलाज है, इन मुश्किल हालातों से छुटकारे का ? उसके अंतर्मन का भय उसे रोक भी रहा था । खुद को बहलाने के लिए कमरे से हाल, हाल से किचिन और फिर कमरे में आया । तभी नज़र, उधर पड़े अखबार पर पड़ी ।

     अखबार की सुर्खियाँ पढ़ते ही ठहाका मार हँसने लगा । एक नोट बुक उठा उसने लिखना शुरू किया -

“आत्महत्या के कारणों को स्पष्ट कर रहा हूँ -

छलावा ही यह सब नजर हमें आता है,
भौतिक उत्पादों को ही सस्ता किया जाता है ।

जिजिविषा में जी के चरमरा रहें है जो लोग,
सस्ता लिख कर झुनझुना पकड़ाया जाता है ।

चुनाव आने को हैं, तो बेलन चला दिया !
डंडा महंगाई का तेल पीने रख दिया जाता है ।

जो चुनाव हुए खत्म, फिर हांकेंगे हमें !
अभी तो मवेशियों को पाल लिया जाता है ।

आप का बाप बना, ये अंतरिम दिख रहा है,
केवल दिलासा ही युवाओं को थमाया जाता है ।

तुम क्या कभी उत्पादों को सस्ता करवाओगे ?
पड़ोसी मुल्क बाजार को चट किये जाता है ।

हमारे कारखाने, लचर कराधान को रोते,
उधर 'ड्रेगन’ और भी 'एंटर' हुआ जाता है ।

गर व्यापार मसौदा हुआ तो कुछ बेचो भी !
मक्कारी में अपना उत्पाद रखा ही रह जाता है ।

फिर कचरे के दाम में उद्यमी ही बिकता है !
उसकी जान को ही और सस्ता किया जाता है ।

हर विभाग दोने-पत्तल लिए मुँह तकते हैं !
उत्पादक खुद अपनी तेरहवीं करवाता है ।

दक्षिणा में जान कई सपनों की जाती रही है !
नौकर बन विदेशी फर्म में वो पिस जाता है ।

युवा देश का और उसके ख़्वाबों की बातें !
कमज़र्फ ख्वाब ऐसे में भी कैसे आ पाता है ?

ख्वाब, चारपाई के खटमल पहले चूसते हैं !
बाद में शासकीय दफ्तरों का नम्बर आता है ।

फिर यकीन का अपना सौर मंडल बना है,
देखें अब बदले, कुछ जो न बदल पाया है ।

फिर काला टीका सपनों को लगाने के लिए,
मतदान का अवसर सामने चला आया है ।

उँगली पे लगा निशान देखते ही गए हम,
नाख़ून ही बढ़ा और कटते ही चला आया है ।


सवाल ये है कि ...............और क्या है बाकी ??"

..........................अखबार के उपर नोट-बुक रख आखिर फंदे पर लटक ही गया नरेन्द्र ।


तीन दिन बाद-

     जब गंध बिल्डिंग में फैलने लगी और वसूली वालों का भी हंगामा बढ़ने लगा, तो पुलिस भी आ ही गई । दरवाज़ा तोड़ा गया तो देश का युवा उद्यमी साड़ी से झूलता मिला उन्हें । पास ही एक नोट-बुक के नीचे वो अखबार दबा पड़ा था जिसमे युवा उद्यमियों को आर्थिक सहायता और योजनाओं का ख़ासा सरकारी विज्ञापन रूपी समाचार था ।

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                                                            : अनुराग त्रिवेदी ‘एहसास’