सारे शहर की तरह सदर की संकरी गलियाँ भी दशहरा, दुर्गा पूजा, या फिर गणेश-उत्सव
......हर त्योहार बड़ी सज-धज और उत्साह के साथ मनाती हैं । दशहरा पर रावण के
छोटे-बड़े पुतले तो दुर्गा-पूजा और गणेशोत्सव के लिए माँ दुर्गा और गणेश जी की
प्रतिमाएँ, भव्य पंडालों में सजाई
जाती हैं । ऐसी ही एक गली में संजू रहता था.. उस गली में ज़्यादातर गरीब परिवार ही
रहते थे, इसलिये उस गली को छोड़ कर
आस-पास की सारी गलियाँ जगमगाती रहती । हर बार गणेशोत्सव पर संजू भी अपनी माँ से
कहता :- “माँ मैं भी रखूंगा गणपति....!
बप्पा को लेकर आऊंगा ..!” माँ 'हम्म' बोल के रह जाती । वो जानती थी, संजू के पापा के जाने के बाद, संजू की मेहनत से ही दो वक्त की रोटी जुटती है, किसी तरह ! फिर कैसे ? पर वो उसकी बात पर कुछ
नकारात्मक जवाब देकर उसे निराश भी नही करना चाहती थी ।
उस बरस भी गणेशोत्सव के
दिन पास आ गये ....... सब जगह गणेशोत्सव की तैयारियों की धूम मचने लगी ...चंदे
वसूले जाने लगे...पंडाल-मंच सजने लगे ....मूर्तियाँ सुन्दर-सुन्दर सज कर तैयार हो
गईं, स्थापित होने के लिए ।
संजू के मन में बरसों से संजोयी अभिलाषा फिर जोर मारने लगी ।
संजू सुबह सरकारी स्कूल
में एक-दो घंटे पढ़ कर पास के बाज़ार में एक सेठ की चाय की दुकान में काम करता था ।
अक्सर ऐसा होता कि स्कूल पास ही होने के कारण कोई मास्टर आ जाते, स्कूल के ....और वो उन्हें
देख कर छुप जाया करता । एक दिन जब वो दुकान गया, स्कूल के बाद .....उसने देखा कि उसके
कक्षाध्यापक ही आये हैं, जिनके साथ कोई शिक्षा अधिकारी हैं । संजू मेज के अन्दर घुस कर पिछले दरवाजे से
बाहर भाग गया ।
बाजार घूमते हुए, उसे एक सुन्दर सी मूर्ति
दिखी गणेश जी की.....देखकर उसका मन हुआ ..... काश मेरे पास अभी पैसे होते और मै ले
जा सकता गणपति बप्पा को अपने साथ ! उसने मूर्ति की कीमत पूछी .....शुरुआती बाज़ार
होने के कारण, दूकानदार ने मूर्ति की चार गुनी कीमत बताई । संजू निराश हो कर फिर दुकान
पँहुचा और बेमन से लग गया, काम में । सेठ ने पूछा :- "क्यूँ बे ! आज तुमाओ मन नहीं लग रओ काम में .....! का बात है ?" संजू ने उत्तर दिया :- "कुछ नहीं सेठ जी ....ऐसई ।"
सेठ :- "का
ऐसई बे ! का अम्मा की तबीयत खराब है ?"
संजू :- "नही
सेठ ....ऐसई .. !" तेरह साल का संजू, बहुत ही शांत भाव से जवाब दे रहा था पर सेठ का
मन हो रहा था पूछने का .......कि, क्या हुआ ? उसे लग रहा था कि पड़ोस की दुकान वाले ने तो कहीं दो पैसे ज्यादा का ऑफर नही दे
दिया । अक्सर लड़के काम ही छोड़ कर चले जाते हैं.... सिर्फ दो पैसे बढ़े देख कर ।
उसने फिर पूछना शुरु किया और अबकी संजू ने बता दिया । सेठ के मन में कुछ आया और
उसने एडवांस के तौर पर उसे पाँच सौ रुपये दे दिए । खुशी-खुशी वो घर गया । तीन-चार
सौ उसने पहले से बचा कर रखे थे ....माँ को बताया :- "माँ
! मैं गणपति को लेने जा रहा हूँ ।"
माँ :- "इत्ती
रात को !"
संजू :- "हाँ
...माँ ! बाजार खुला है अभी ।"
जब वो बाजार पँहुचा ....वो दुकानदार दुकान समेट रहा था । उसने देखा...वो मूर्ति, उधर नहीं थी, जो उसने दिन में देखी थी । वो निराश हो कर वापस आ गया ...... उसकी आँखों में
तो वही प्रतिमा घूम रही थी ।
दूसरे दिन वो दुकान जाने के लिए बाजार से गुज़र रहा था । मूर्ति की दुकान
के पास पँहुचा तो देखा …..दो बच्चें खड़े हैं, अपने पिता के साथ, उस प्रतिमा को हाथ में लिये, जो एक दिन पहले उसको बहुत पसंद आई थी । वो उस मूर्ति को वापस कर के और बड़ी
मूर्ति लेने आये थे । वो उसे वापस रख कर दूसरी पसंद कर रहे थे । संजू वहीं आ कर
खड़ा हो गया, सुनता रहा उनकी बातें ..तो उसे पता चला कि जो दाम उसे बताये थे कल दूकानदार ने, उससे आधे से कम दाम में
उन्हें बेची थी वो मूर्ति उसने । वो चुपचाप खड़ा कुछ देर देखता रहा, फिर उस व्यक्ति से
बोला :- "बाबू जी.. मैं ये प्रतिमा खरीदना
चाहता हूँ.. जितने की ली थी..पैसे मुझसे ले लीजिये और मुझे दे दीजिये..वापस मत
कीजिये !" वो व्यक्ति कुछ जवाब देता, उससे पहले ही दुकानदार
ने गुस्से से चिल्लाते हुए उसे उधर से
जाने के लिए कहा । संजू आँखों में आँसू लिए, दुखी मन से दुकान पर पँहुचा । सेठ ने जब उसे
देखा, फिर वो समझ गया ..कुछ बात
है ! कारण पूछने पर उसने सेठ को सब बता दिया ।
सेठ तुरंत संजू को लेकर उस
दुकान पर पँहुचा और उस व्यक्ति से बोला :- "बाबू
जी ! बच्चा.. कहना चाह रहा है.…ये कोई पहनने के कपड़े.. या फिर.. कोई खाने की वस्तु
नही.. जो खरीद के बदली करके फिर उधर आप छांट रहे हैं ।" सेठ की
बात सुनकर उस व्यक्ति ने दूकानदार के मना करने पर भी, वो मूर्ति ख़रीदे गए दामों
पर संजू को दे दी । संजू ने मूर्ति हाथ में लेते ही कहा :- "चलिये बप्पा.. घर में माँ इतंजार कर रही ..!"
और खुशी-खुशी घर की तरफ दौड़ पड़ा ।
उसके जाने के बाद उस व्यक्ति ने संजू से लिए पैसे, सेठ को वापस दिए और कहा :-
"उस बच्चे की सच्ची श्रद्धा के सामने इन
पैसों का कोई मोल नहीं .... ये उसे वापस दे दीजियेगा... और बताईयेगा नही उसे, कि मैने वापस किये.. उसके मन को ठेस लगेगी..!"
गणेश प्रतिमा को देख कर
संजू की माँ आश्चर्य से उसे निहारे जा रही थी । संजू ने ईंटों का मंच बना, उसमें जैसे-तैसे पंडाल
बनाया । घर में मात्र एक स्टूल था, जिस पर आरती की थाली रखता और खुद ईंट की बनाई स्टूल पर बैठता । उसकी श्रद्धा
के अदृश्य पुष्प उधर मुस्कुरा रहे थे । जिन्हे उसके आस-पास वाले ही समझ रहे थे ।
कोई संगीत नही ..कोई रोशनी नहीं । एक बल्ब कनेक्शन की उसकी झोपड़ी थी... बार-बार
उसकी नज़र बल्ब पर पड़ती । माँ समझ गई, बोली :- "क्या
देख रहा है ?" संजू :- "नही ...कुछ नही !"
माँ :- "अरे ...हम जल्दी ही तो सो जाते हैं..
सुबह-सुबह ही खाना बना लेंगे !" संजू :- "मतलब ?" माँ :- "मतलब
यही ....! तार तेरे गन्नू की तरफ खींच ले.. लगा ले बल्ब !" वो उठा
और माँ के गले में हाथ लिपटा झूल गया । माँ भी मुस्कुराई और साथ-साथ उसकी आँख भी
नम हो गई । दोनों यशोदा और कृष्ण की तरह वात्सल्य भाव में डूब गये थे ।
अब संजू के घर के बाहर भी बप्पा बैठे मुस्कुरा रहे थे । उनके लिये
व्यवस्थायें जुटाने में पहले अकेले ही लगा था संजू पर बप्पा के स्थापित होते ही
उसकी सेना तैयार हो गई । आस-पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चे ....जो पहले अगल-बगल की
गलियों की बड़ी गणेशोत्सव संस्थाओं में लगे थे ...उसके साथ आ गए । कोई पाँच साल का, कोई आठ का... कोई दस तो
कोई बारह का ......लगभग पांच से बारह साल के बच्चों की फ़ौज तैयार हो गई उसकी । सब
कहते ...हम भी चंदा करेंगे, सबकी तरह ! पर संजू कहता :- "नही.. सोचा
था.. रखूँगा..! अब जब बप्पा अपने बलबूते पे आये.. तो आगे भी सब हो जायेगा ।"
पूरे उत्साह के साथ चार दिन तक .. यही चलता रहा कि.. वो सब तैयारियों में जुटे
रहते । देखते ही देखते.. उधर सारी छोटी-छोटी
व्यवस्थायें बन गई.... वो गली साफ़ की गई.. नाले वगैरह की सफाई करी गयी । उस
गली में उसने अन्दर से बाहर तक केले के पत्तों की बेल लगा दी....गली को सुन्दर
बनाने के लिये उसने और उसकी नन्ही संजू ब्रिगेड ने अपने सीमित प्राकृतिक संसाधनो
का भरपूर इस्तेमाल किया । पर आख्रिरी के दिनों में, जब बड़ी संस्थाओं में रौनक बढ़ गयी, सारे बच्चे वापस उधर की
तरफ रुख कर गये.. कोई नहीं रुकता था, संजू के पास । वो सोचता :- "आखिर मुझे
ही करना है .. मैं ही करना चाहता हूँ ...तो क्यूँ किसी का इंतजार करुँ ..!"
अकेले ही तैयारी करता .. आरती करता.. सफ़ाई करता..। दिन में भी दुकान से आ कर बप्पा
के पास बैठ के गपशप करता । फिर उनसे कहता – “आता हूँ... !”
रोज सेठ प्रसाद के लिये उसे कभी सौ कभी दो सौ रुपये देता । सेठ ने उस
व्यक्ति के दिये मूर्ति के पैसे भी उसे किसी बहाने से दे दिये .......और जब प्रसाद
लेकर वो गली में बाँटने चलता ..... उसकी फौज फिर खड़ी हो जाती.. उसी उत्साह के
साथ.. जो प्रसाद के खत्म होते ही वापस..बड़ी संस्थाओं के मंच की तरफ घूम जाती । तब
संजू मन ही मन सोचता :- "सिर्फ प्रसाद के लिये आते हैं...बप्पा के लिए नहीं ! पर
कोई नहीं.... मैं तो हूँ उनके लिए ! कल नहीं दूँगा प्रसाद मै इन सबको ।"
फिर कुछ सोचता और कहता :- "नही ...! प्रसाद नही दिया.. ये तो गलत बात होगी.. है ना
?" संजू बहुत ही आर्दश भक्ति
का सूचक सा बन गया था और उसके सच्चे भाव से प्रेरित होकर शाम कि आरती में भीड़ सी
लग जाती थी, आस-पड़ोस के लोगों की और यहाँ तक कि सेठ और उसके बन्धे ग्राहक भी शाम को आरती
में आते ।
संजू उस दिन बहुत उदास
हुआ.. जब माँ ने कहा - 'कल विसर्जन है ।' रह-रह कर उसका मन रोने को होता.. बप्पा को देखता और सोचता.. वो उदास हो जायेंगे उसे रोते देख कर
....और मुस्कुरा देता ।
संजू दिन भर खुद को व्यस्त किये था कि ख्याल ना आये, बप्पा की विदाई का । आख़िरी
दिन में चहल-पहल बढ़ जाती है, रोशनी और धूम-धड़ाका अपने चरम पर पँहुच जाता है और मेले का सा माहौल हो जाता है, बड़े पंडालों में । सबके
कदम उन पंडालों की तरफ ही बढ़ जाते हैं । सूनी सी उस गली में.. संजू अपने बप्पा के
साथ बैठा.. आते-जाते लोगों को दूर से देख रहा था.. उसे लगता लोग उसके बप्पा के
दर्शन को भी आयेंगे, पर कोई ना आया । आरती करने खड़ा हुआ तो, वो और उसकी माँ बस ! कोई और नही था । आरती के
बाद भी, बैठा तकता रहा, हर आते-जाते को .....। कुछ
लोग गाड़ी ले गली में आते ...तो उसे लगता ये सच्चे श्रद्धालु हैं.. पक्का बप्पा से
मिलने आयेंगे.. लेकिन वो तो गाड़ी पार्क करके चले जाते.. कोई ना आता ।
रात भर वो आरती के दीपक की लौ को संभाल कर बैठा
रहा.. उसे इंतजार था.. कोई आयेगा ! पूरी रात बिन खाये-पिये संजू ने अपना दीपक
जगाये रखा । खुद भी नही सोया और दीपक भी बुझने नही दिया । सुबह उसके मित्र और
पड़ोसी आये, तो उनसे बोला :- "आरती ले लो .. ! बप्पा आज अपने घर वापस चले जायेंगे..
पता नहीं ......फिर उनका इस अँधेरे में आने का मन होगा या नहीं ?"
इतना कहते ही उसके धीरज का बाँध टूट गया और फूट-फूट
कर रो पड़ा वो ।
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चित्रांकन व कथा : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास'