आकाश बार-बार घड़ी देख रहा था .......और उसके माथे की सिलवटें साफ कह रही थीं कि उसे इस तरह इंतजार करना कितना अखर रहा था । तभी बस स्टाप पर एक बस आई जिसकी तरफ लपक कर वो आगे बढ़ कर खड़ा हो गया | बस के कुछ यात्री उतरने के बाद एक वृद्ध महिला उतरी और पीछे से एक वृद्ध, जिनके हाथ में दो बैग थे, जिन्हें उन्होंने मजबूती से थामा हुआ था | बूढ़ी महिला आकाश को देख कर मुस्कुराई और बस-अड्डे से नज़र आते शहर की चमक-दमक पर नज़र दौड़ाने लगी | आकाश ने उन्हे कार की तरफ इशारा किया और आगे-आगे तेज कदम चलने लगा । वो बूढ़ी मानो पूरी ताकत खर्च कर आकाश के पीछे तेज़ क़दमों से चल पड़ी और पीछे-पीछे कान्धे पर दोनों बैग टांगे, बुजुर्ग भी उनके हमकदम होने की कोशिश करने लगे । पसीने से दोनो तरबतर हो गए, पर चमचमाती गाड़ी को देख कर, चमक उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखने लगी ।
आकाश ने दरवाजा खोला और उनके बैठते ही वो ड्राईविंग सीट पर जा बैठा । दोनों बुज़ुर्ग उस गाड़ी की मखमली गद्दी का स्पर्श कर रहे थे .....बूढ़ी ने मुस्कुरा कर बुजुर्ग को देखा तो वो भी पसीने को गमछे से पोंछते हुये प्रतिउत्तर में मुस्कुरा दिये । आकाश ने गाड़ी को ज्यूँ हीं रफ्तार दी, उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ-जा रहे थे ....कभी नाक सिकुड़ती, कभी भवें तेज कमान सी हो जातीं, ज़रा भी ट्रेफिक को देख कर । वहीं पीछे बैठी बूढ़ी लगातार बोले चली जा रही थी । कभी सफर का किस्सा बयाँ करती तो कभी कहती :- “इस पे बैठो तो खटिया याद आ रही है ।“ बूढ़ा बुजुर्ग वो खुरदुरी खटिया और उस मखमली सीट की असमानताओं को सोच कर मुस्कुरा रहा था । बूढ़ी थक ही नहीं रही थी, बोलते-बोलते और उधर आकाश …ट्रैफिक सिगनल पर रुकते ही, गाड़ी से बाहर चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखता और अजीब सा मुँह बनाता ।
देखते ही देखते कई सिग्नल और 18 कि.मी. का सफर खत्म हुआ । गाड़ी में तीन सवारी थीं, पर सिर्फ वो बूढ़ी ही थी, जो लगातार बोले जा रही थी, पिछले 18 कि मी के इस सफर में बाकी दोनों लोग मूक-बधिर से बैठे रहे | बूजुर्ग का पसीना तो सूख गया था, एसी गाडी में बैठते ही, और अब ठंडा सा हो रहा था जिस्म उसका । कभी वो आकाश को देखता, कभी बूढ़ी और फिर उस गाड़ी की अन्दरुनी चमक- दमक को । आटोमेटिक ऊपर-नीचे होते शीशे, हैंडिल पर लगे साफ़्ट-पैड और गाड़ी के डैश-बोर्ड पर रखे महँगे सिगरेट के पैकट और लाईटर को देख, अपने खीसे में रखी बीड़ी के पैकट और चाभी छाप माचिस की डिब्बियों को टटोलता । उन दोनों के मन में तीव्रता से कई भाव उत्पन्न हो रहे थे, जिन से अनभिज्ञ बूढ़ी बस बोले जा रही थी । उसके मन में छुपी बातों पर जैसे कोई विराम या ट्रेफिक सिंगनल था ही नही और प्रतिउत्तर को भी नही खोज रही थी कि सिग्नल हरा है या लाल .....बस बेकाबू रफ्तार लिये उसकी बातों की गाड़ी दौड़े ही जा रही थी ।
आकाश ने गाड़ी में ब्रेक लगाया और घर के किनारे गाड़ी पार्क करने के पहले अपने मौन को तोड़ते हुये बोला :- “माँ ! कब का रिजर्वेशन है आप लोगों का ?” बूढ़ी सुनते ही मुस्कुराई और बूजुर्ग की तरफ देखने लगी .......वो उन्हे देख कर मुस्कुरा दिये । फिर आकाश बोला :- “मेरा मतलब है कि यदि नही है .......तो मैं करवा दूँ ....कब जाओगी ?” आज शायद बूढ़ी, उसकी आवाज चार बरस बाद सुन रही थी । विदेश जाने के बाद वहीं शादी भी हुई और फिर बातें यदा-कदा होती भी थी तो वो भी खत्म हो गई थीं । उनको लगा था कि बच्चा ये कह रहा है कि खूब बातें करेंगे .....जाने की कोई जल्दी नही ! पर इधर तो उसने जो पूछा कि बस वो चकित रह गई । उसकी खिली मुस्कान, झेंप की मुद्रा में आई, जिसे बूजुर्ग ने पहचानते हुये, उसके कान्धे पर हाथ रखा और अपना भी मौन तोड़ते हुये कहा :- “लल्ला ! यही बंगला है का तेरा ? यहीं उतरना है हमको ?” आकाश को मनचाहा उत्तर नही मिला तो प्रश्न के जवाब में उसने बेमन से सिर हिलाया और उतर के दरवाजा खोल दिया ।
उतरते ही बुजुर्ग ने बैग उतार कर जमीन पर रखे और गमछे से सीट साफ करी । आकाश को कुछ समझ नही आ रहा था ......वो चुपचाप खड़ा कभी कॉलोनी के दूसरे घरों को देखता और कभी सिकुड़न से भरी माँ की साड़ी को । अपने पिता का मैला सा और पीला पड़ा कुर्ता, जो कभी शायद सफेद हुआ करता होगा .....उसे भी देखा उसने । उसे लगा कि उसे देखते हुये उसके बुजुर्ग पिता ने नही देखा किंतु वो उसे देख रहे थे कि क्या बात उसे परेशान कर रही है । वो और कुछ बोलने को हुआ कि तभी बुजुर्ग ने उधर से जाती एक टैक्सी को आवाज दे कर रोका | आकाश की समझ में कुछ नही आया ।
टैक्सी की तरफ बढ़ते हुये वो बूढ़ी से कहने लगे :- “देख ले तेरे लल्ला का बडा बंगला !.. और ये बड़ी गाड़ी .. नजर भर देख ले.. !” फिर टैक्सी में बैठते ही जेब को टटोल कर एक पाँच सौ का नोट निकाल कर बुजुर्ग ने आकाश को दिया और कहा :- “ले बेटा ! गाड़ी गन्दी हो गई होगी तेरी .... धुलवा लेना ...! खुश रहना .. हमें तो बस अपनी मेहनत की चमक देखनी थी .....वो हमने देख ली ।“
प्रश्न-चिन्ह लिये बूढ़ी अब मौन थी.. और पास रखे बैग को टटोल-टटोल के महसूस कर रही थी । कुछ देर बुजुर्ग शांत बैठे रहे, फिर उसकी नम आँखों को देख कर बोले :- “हमारी दुनिया वही खटिया है, जिस पर रात-रात करवटों में जाग कर ....हमने उस मखमली जीवन के सपने खुद देखे और बच्चे को दिखाये । लेकिन अब वो हमसे जीवन भर के लिए दूर है... तुम्हारी मीठी बोली में रस बरस-बरस के फूट रहा था स्नेह और प्रेम का ......वहीं लल्ला की गहरी खामोशी बता रही थी कि उसे हमारा यूँ आना जरा भी अच्छा नही लगा .....शायद के बहू को पसंद ना हो या फिर ....!” कुछ क्षणों तक चुप रह कर फिर बुजूर्ग बोले :- “खैर..! जो भी है .. अच्छा है.. खुश रहे वो .. हमारे लिये इतना ही काफी है कि हमारी मेहनत से हमारी बगिया में फूल खिला हैं ......माली को फूलों की खुशबू मिले ....ये जरुरी तो नही !” बूढ़ी अश्रुपूरित नयन लिए, सिर हिलाकर मौन सहमति दे रही थी ………और 18 किमी का सफर पूरा हुआ ।
कथा एवं रेखाचित्र : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास'
उफ़्फ़ ये सफर !!
ReplyDeleteआभार भाई !
Deleteआपके उफ्फ़ में छुपा आशीष मुझे मिल गया ।
ह्रदय से आभार !
Bahut sunder likha hai bhai...sach me...mere pass shabd nahi hai ki kya likhu is par...bas bahut khoob
ReplyDeleteभाई ह्रदय तल से आभार !
Deleteन कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया,
यूं लग रहा कथा ने मर्म प्रेषित कर दिया।
हार्दिक शुभकामनायें !
सादर
acha likha hai... cruel truth.
ReplyDeleteमाली को फूलों की खुशबू मिले ये जरुरी तो नहीं....!!
Yes, its one of extremely cruel truth of modern society !
Deleteखुशबू की चाह बागवां नही करता है'
पर ख्याब सभी की पलकों पे पलता है।
बच्चे के भविष्य में अपना भी कल देखे,
उस कल में उसका कलेजा रो पड़ता है।
बहुत बहुत आभार ! शुभ्काम्नायें नए वर्ष की
सादर !
Yes, its one of extremely cruel truth of modern society !
Deleteखुशबू की चाह बागवां नही करता है,
पर ख्याब सभी की पलकों पे पलता है।
बच्चे के भविष्य में अपना भी कल देखे,
उस कल में उसका कलेजा रो पड़ता है।
बहुत खुशी हुई आपकी टिप्पणी पढ़ कर पुन: नव वर्ष की शुभ्काम्नायें
मार्मिक अभिव्यक्ति.....18 साल का सफ़र या 18 साल का इंतजार फिर एक अंतहीन निरुद्देश्य सफर।
ReplyDelete"हमारी मेहनत से बगिया में फूल खिला है...माली को फूल की खुशबू मिले ज़रूरी तो नहीं"
best comment di. hume bhi yahi khna tha.
Deleteआभार नीशू
Deleteहार्दिक आभार प्रियंका जी।
Deleteवर्तमान भौतिकवादी परिवेश में तार-तार हो चुकी भावनाओं और संवेदनाओं को उद्घाटित करती …एक अत्यंत ही भावनात्मक व संवेदनशील कहानी, जो कि एक संक्षिप्त कथानक में ही कहीं गहरे से मन को छूते हुए …एक कटु सत्य से भी अवगत करा रही है ।
ReplyDeleteऔर एक खास बात .……जिस तरह से सीमित शब्दों में ही कहानी अनंत भाव समेटे हुए है …उसी तरह से रेखाचित्र भी अति सीमित रेखाओं में ही कहानी में निहित भाव का स्पष्ट दर्शन करा रहा है …. पुत्र का हाथ बांध कर बेपरवाही के भाव से खड़े रहना और वृद्ध माँ का उसकी तरफ हसरत भरी निगाहों से देखना …. मानो मन ही मन कुछ सवाल कर रही हो उससे … अद्भुत !
अभिभूत हूँ ! कथा के वर्गीकृत को एकाकार कर जो टिप्पणी दी मुझे अचम्भित कर रही ।
Deleteआशा से अधिक बाल मन को मिल जाए और ज्यूं खिलखिलाता वो ! वही अनुभव कर रहा हूँ ।
ह्रदय की अनंत गहराइयों से आभार !
bahut sundar anurag ji.... Regards- Tarun srivastava
ReplyDeleteतरुण जी ह्रदय तल से आभार !
DeleteArre Anurag Bhai... kya likha hai aapne...vishay aisa chuna hai ki hridaya k ander tak baat ghr kr gyi...katu satya ko ukera aapne. Ek line "हम तो अपनी मेहनत की चमक को देखने आये थे" bahut badi baat hai apne aap mein.
ReplyDeleteअभिलेख भाई
Deleteआपका प्रोत्साहन उकसाता है सार्थक सृजन के लिए । सदैव आशा रहती है प्रेरक टिप्पणी की और आप समय देते हैं । शब्द नही कैसे आभार व्यक्त करूं ।
ऐसे ही स्नेह दृष्टी देते रहियेगा ।
सादर
अनुराग
Bahut Khoob Abhi bhai...
ReplyDeleteमनीष भाई ह्रदय तल से आभार !
Deleteअनुराग भैया.....सुंदर....परिपूर्ण....सच....!!!
ReplyDeleteऔर उतना ही स्वछंद लेखन....!!!
काफी उम्दा प्रस्तुति.....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-01-2014) को "वो 18 किमी का सफर...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1490" पर भी रहेगी...!!!
- मिश्रा राहुल
उत्साहपूर्ण टिप्पणी और विषय को चर्चा में स्थान देने के लिये अभिभूत हूँ ! ह्रदय तल से आभार भाई राहुल ।
Deleteसादर नमन !
राहुल भाई
ReplyDeleteउत्साहपूर्ण टिप्पणी और कथा के मर्म को चर्चा में स्थान देने के लिए अभिभूत हूँ । ह्रदय तल दे आभार स्वीकारें भाई
सादर
अनुराग
क्या कहूँ क्या नही शब्द नही मेरे पास..जिस तरह आपने जीवन के इस कटु सत्य को हमारे सामने प्रस्तुत किया पढ़ते ही कुछ पल के लिये मष्तिष्क शुन्य हो गया..और आँखे भर आई..!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा आपने..दिल को छूती रचना .!!
ह्र्दय तल से आभार रुपम .........!
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वाह रे मेरे लाल , अब हुआ तू इक मेहमान रे
ReplyDeleteचँद सिक्कों की खातिर क्यू हुआ तू अंजान रे
जरा छू ले तू उस बेहती हवा को , जिस से
तेरे होने का हमें, सदा मिलता रहे पैगाम रे ...
विवेक सिंघानिया
विवेक जी आपके इस मुक्तक ने कथा के भाव को सहज ही कह डाला .. खूब से भी खूबत्तर ... हार्दिक आभार !
Deleteज़िन्दगी ...उफ्फ कितनी कठिन है तू ... अनुरागजी नमन है आपकी अभीव्यक्ती को ...
ReplyDeleteसार्थक हो प्रयास जब रचना संप्रेषित हो जाती है !
Deleteभाव दूजे के मन के कलम जो कभी कह पाती है !
हार्दिक नमन ... विवेक जी !
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अत्यंत मार्मिक।
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक।
ReplyDeleteकहानी के प्रारंभ में, बुज़ुर्गों का अपना सामान ख़ुद लादकर चलना मन को भीतर तक कचोटता है ।कोई अपशकुन हो जैसे।
ReplyDeleteपर फिर उनका बच्चों जैसा उत्साह खुशियों के संसार में ले जाता है।
बेटे की गहरी ख़ामोशी जैसे बिना बोले बहुत कुछ बोल रही हो। पर जिसे १८ कि. मी. के लंबे सफ़र में मां बाप सुन न सकें।
बाबू जी ने अपना मौन तोड़ा और क्या ख़ूब तोड़ा।
माली बगिया को ख़ूबसूरत बनाने में जान लगा देता है ताकि फूल खुश रहें। पर वह तब भी अपनी टूटी खटिया पर चैन की नींद सोता है।
ऐसे बेटों कौ मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। ऐसे ही एक सफ़र के लिये।
एक कटु सत्य जिसे एक अलग सशक्त अंदाज़ में पेश किया गया है।
बधाईयाँ अनुराग जी।
:) हार्दिक आभार बिन्दु जी ... !
Deleteसह्र्दय नमन .. _/\_ !!
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ReplyDeleteस्पर्शी। आखों में आंसू आ गए। धरती पर भगवन के रूप की दुर्गति उनकी ही संतति करती है।दुःखद किन्तु सत्य।
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