सारे शहर की तरह सदर की संकरी गलियाँ भी दशहरा, दुर्गा पूजा, या फिर गणेश-उत्सव
......हर त्योहार बड़ी सज-धज और उत्साह के साथ मनाती हैं । दशहरा पर रावण के
छोटे-बड़े पुतले तो दुर्गा-पूजा और गणेशोत्सव के लिए माँ दुर्गा और गणेश जी की
प्रतिमाएँ, भव्य पंडालों में सजाई
जाती हैं । ऐसी ही एक गली में संजू रहता था.. उस गली में ज़्यादातर गरीब परिवार ही
रहते थे, इसलिये उस गली को छोड़ कर
आस-पास की सारी गलियाँ जगमगाती रहती । हर बार गणेशोत्सव पर संजू भी अपनी माँ से
कहता :- “माँ मैं भी रखूंगा गणपति....!
बप्पा को लेकर आऊंगा ..!” माँ 'हम्म' बोल के रह जाती । वो जानती थी, संजू के पापा के जाने के बाद, संजू की मेहनत से ही दो वक्त की रोटी जुटती है, किसी तरह ! फिर कैसे ? पर वो उसकी बात पर कुछ
नकारात्मक जवाब देकर उसे निराश भी नही करना चाहती थी ।
उस बरस भी गणेशोत्सव के
दिन पास आ गये ....... सब जगह गणेशोत्सव की तैयारियों की धूम मचने लगी ...चंदे
वसूले जाने लगे...पंडाल-मंच सजने लगे ....मूर्तियाँ सुन्दर-सुन्दर सज कर तैयार हो
गईं, स्थापित होने के लिए ।
संजू के मन में बरसों से संजोयी अभिलाषा फिर जोर मारने लगी ।
संजू सुबह सरकारी स्कूल
में एक-दो घंटे पढ़ कर पास के बाज़ार में एक सेठ की चाय की दुकान में काम करता था ।
अक्सर ऐसा होता कि स्कूल पास ही होने के कारण कोई मास्टर आ जाते, स्कूल के ....और वो उन्हें
देख कर छुप जाया करता । एक दिन जब वो दुकान गया, स्कूल के बाद .....उसने देखा कि उसके
कक्षाध्यापक ही आये हैं, जिनके साथ कोई शिक्षा अधिकारी हैं । संजू मेज के अन्दर घुस कर पिछले दरवाजे से
बाहर भाग गया ।
बाजार घूमते हुए, उसे एक सुन्दर सी मूर्ति
दिखी गणेश जी की.....देखकर उसका मन हुआ ..... काश मेरे पास अभी पैसे होते और मै ले
जा सकता गणपति बप्पा को अपने साथ ! उसने मूर्ति की कीमत पूछी .....शुरुआती बाज़ार
होने के कारण, दूकानदार ने मूर्ति की चार गुनी कीमत बताई । संजू निराश हो कर फिर दुकान
पँहुचा और बेमन से लग गया, काम में । सेठ ने पूछा :- "क्यूँ बे ! आज तुमाओ मन नहीं लग रओ काम में .....! का बात है ?" संजू ने उत्तर दिया :- "कुछ नहीं सेठ जी ....ऐसई ।"
सेठ :- "का
ऐसई बे ! का अम्मा की तबीयत खराब है ?"
संजू :- "नही
सेठ ....ऐसई .. !" तेरह साल का संजू, बहुत ही शांत भाव से जवाब दे रहा था पर सेठ का
मन हो रहा था पूछने का .......कि, क्या हुआ ? उसे लग रहा था कि पड़ोस की दुकान वाले ने तो कहीं दो पैसे ज्यादा का ऑफर नही दे
दिया । अक्सर लड़के काम ही छोड़ कर चले जाते हैं.... सिर्फ दो पैसे बढ़े देख कर ।
उसने फिर पूछना शुरु किया और अबकी संजू ने बता दिया । सेठ के मन में कुछ आया और
उसने एडवांस के तौर पर उसे पाँच सौ रुपये दे दिए । खुशी-खुशी वो घर गया । तीन-चार
सौ उसने पहले से बचा कर रखे थे ....माँ को बताया :- "माँ
! मैं गणपति को लेने जा रहा हूँ ।"
माँ :- "इत्ती
रात को !"
संजू :- "हाँ
...माँ ! बाजार खुला है अभी ।"
जब वो बाजार पँहुचा ....वो दुकानदार दुकान समेट रहा था । उसने देखा...वो मूर्ति, उधर नहीं थी, जो उसने दिन में देखी थी । वो निराश हो कर वापस आ गया ...... उसकी आँखों में
तो वही प्रतिमा घूम रही थी ।
दूसरे दिन वो दुकान जाने के लिए बाजार से गुज़र रहा था । मूर्ति की दुकान
के पास पँहुचा तो देखा …..दो बच्चें खड़े हैं, अपने पिता के साथ, उस प्रतिमा को हाथ में लिये, जो एक दिन पहले उसको बहुत पसंद आई थी । वो उस मूर्ति को वापस कर के और बड़ी
मूर्ति लेने आये थे । वो उसे वापस रख कर दूसरी पसंद कर रहे थे । संजू वहीं आ कर
खड़ा हो गया, सुनता रहा उनकी बातें ..तो उसे पता चला कि जो दाम उसे बताये थे कल दूकानदार ने, उससे आधे से कम दाम में
उन्हें बेची थी वो मूर्ति उसने । वो चुपचाप खड़ा कुछ देर देखता रहा, फिर उस व्यक्ति से
बोला :- "बाबू जी.. मैं ये प्रतिमा खरीदना
चाहता हूँ.. जितने की ली थी..पैसे मुझसे ले लीजिये और मुझे दे दीजिये..वापस मत
कीजिये !" वो व्यक्ति कुछ जवाब देता, उससे पहले ही दुकानदार
ने गुस्से से चिल्लाते हुए उसे उधर से
जाने के लिए कहा । संजू आँखों में आँसू लिए, दुखी मन से दुकान पर पँहुचा । सेठ ने जब उसे
देखा, फिर वो समझ गया ..कुछ बात
है ! कारण पूछने पर उसने सेठ को सब बता दिया ।
सेठ तुरंत संजू को लेकर उस
दुकान पर पँहुचा और उस व्यक्ति से बोला :- "बाबू
जी ! बच्चा.. कहना चाह रहा है.…ये कोई पहनने के कपड़े.. या फिर.. कोई खाने की वस्तु
नही.. जो खरीद के बदली करके फिर उधर आप छांट रहे हैं ।" सेठ की
बात सुनकर उस व्यक्ति ने दूकानदार के मना करने पर भी, वो मूर्ति ख़रीदे गए दामों
पर संजू को दे दी । संजू ने मूर्ति हाथ में लेते ही कहा :- "चलिये बप्पा.. घर में माँ इतंजार कर रही ..!"
और खुशी-खुशी घर की तरफ दौड़ पड़ा ।
उसके जाने के बाद उस व्यक्ति ने संजू से लिए पैसे, सेठ को वापस दिए और कहा :-
"उस बच्चे की सच्ची श्रद्धा के सामने इन
पैसों का कोई मोल नहीं .... ये उसे वापस दे दीजियेगा... और बताईयेगा नही उसे, कि मैने वापस किये.. उसके मन को ठेस लगेगी..!"
गणेश प्रतिमा को देख कर
संजू की माँ आश्चर्य से उसे निहारे जा रही थी । संजू ने ईंटों का मंच बना, उसमें जैसे-तैसे पंडाल
बनाया । घर में मात्र एक स्टूल था, जिस पर आरती की थाली रखता और खुद ईंट की बनाई स्टूल पर बैठता । उसकी श्रद्धा
के अदृश्य पुष्प उधर मुस्कुरा रहे थे । जिन्हे उसके आस-पास वाले ही समझ रहे थे ।
कोई संगीत नही ..कोई रोशनी नहीं । एक बल्ब कनेक्शन की उसकी झोपड़ी थी... बार-बार
उसकी नज़र बल्ब पर पड़ती । माँ समझ गई, बोली :- "क्या
देख रहा है ?" संजू :- "नही ...कुछ नही !"
माँ :- "अरे ...हम जल्दी ही तो सो जाते हैं..
सुबह-सुबह ही खाना बना लेंगे !" संजू :- "मतलब ?" माँ :- "मतलब
यही ....! तार तेरे गन्नू की तरफ खींच ले.. लगा ले बल्ब !" वो उठा
और माँ के गले में हाथ लिपटा झूल गया । माँ भी मुस्कुराई और साथ-साथ उसकी आँख भी
नम हो गई । दोनों यशोदा और कृष्ण की तरह वात्सल्य भाव में डूब गये थे ।
अब संजू के घर के बाहर भी बप्पा बैठे मुस्कुरा रहे थे । उनके लिये
व्यवस्थायें जुटाने में पहले अकेले ही लगा था संजू पर बप्पा के स्थापित होते ही
उसकी सेना तैयार हो गई । आस-पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चे ....जो पहले अगल-बगल की
गलियों की बड़ी गणेशोत्सव संस्थाओं में लगे थे ...उसके साथ आ गए । कोई पाँच साल का, कोई आठ का... कोई दस तो
कोई बारह का ......लगभग पांच से बारह साल के बच्चों की फ़ौज तैयार हो गई उसकी । सब
कहते ...हम भी चंदा करेंगे, सबकी तरह ! पर संजू कहता :- "नही.. सोचा
था.. रखूँगा..! अब जब बप्पा अपने बलबूते पे आये.. तो आगे भी सब हो जायेगा ।"
पूरे उत्साह के साथ चार दिन तक .. यही चलता रहा कि.. वो सब तैयारियों में जुटे
रहते । देखते ही देखते.. उधर सारी छोटी-छोटी
व्यवस्थायें बन गई.... वो गली साफ़ की गई.. नाले वगैरह की सफाई करी गयी । उस
गली में उसने अन्दर से बाहर तक केले के पत्तों की बेल लगा दी....गली को सुन्दर
बनाने के लिये उसने और उसकी नन्ही संजू ब्रिगेड ने अपने सीमित प्राकृतिक संसाधनो
का भरपूर इस्तेमाल किया । पर आख्रिरी के दिनों में, जब बड़ी संस्थाओं में रौनक बढ़ गयी, सारे बच्चे वापस उधर की
तरफ रुख कर गये.. कोई नहीं रुकता था, संजू के पास । वो सोचता :- "आखिर मुझे
ही करना है .. मैं ही करना चाहता हूँ ...तो क्यूँ किसी का इंतजार करुँ ..!"
अकेले ही तैयारी करता .. आरती करता.. सफ़ाई करता..। दिन में भी दुकान से आ कर बप्पा
के पास बैठ के गपशप करता । फिर उनसे कहता – “आता हूँ... !”
रोज सेठ प्रसाद के लिये उसे कभी सौ कभी दो सौ रुपये देता । सेठ ने उस
व्यक्ति के दिये मूर्ति के पैसे भी उसे किसी बहाने से दे दिये .......और जब प्रसाद
लेकर वो गली में बाँटने चलता ..... उसकी फौज फिर खड़ी हो जाती.. उसी उत्साह के
साथ.. जो प्रसाद के खत्म होते ही वापस..बड़ी संस्थाओं के मंच की तरफ घूम जाती । तब
संजू मन ही मन सोचता :- "सिर्फ प्रसाद के लिये आते हैं...बप्पा के लिए नहीं ! पर
कोई नहीं.... मैं तो हूँ उनके लिए ! कल नहीं दूँगा प्रसाद मै इन सबको ।"
फिर कुछ सोचता और कहता :- "नही ...! प्रसाद नही दिया.. ये तो गलत बात होगी.. है ना
?" संजू बहुत ही आर्दश भक्ति
का सूचक सा बन गया था और उसके सच्चे भाव से प्रेरित होकर शाम कि आरती में भीड़ सी
लग जाती थी, आस-पड़ोस के लोगों की और यहाँ तक कि सेठ और उसके बन्धे ग्राहक भी शाम को आरती
में आते ।
संजू उस दिन बहुत उदास
हुआ.. जब माँ ने कहा - 'कल विसर्जन है ।' रह-रह कर उसका मन रोने को होता.. बप्पा को देखता और सोचता.. वो उदास हो जायेंगे उसे रोते देख कर
....और मुस्कुरा देता ।
संजू दिन भर खुद को व्यस्त किये था कि ख्याल ना आये, बप्पा की विदाई का । आख़िरी
दिन में चहल-पहल बढ़ जाती है, रोशनी और धूम-धड़ाका अपने चरम पर पँहुच जाता है और मेले का सा माहौल हो जाता है, बड़े पंडालों में । सबके
कदम उन पंडालों की तरफ ही बढ़ जाते हैं । सूनी सी उस गली में.. संजू अपने बप्पा के
साथ बैठा.. आते-जाते लोगों को दूर से देख रहा था.. उसे लगता लोग उसके बप्पा के
दर्शन को भी आयेंगे, पर कोई ना आया । आरती करने खड़ा हुआ तो, वो और उसकी माँ बस ! कोई और नही था । आरती के
बाद भी, बैठा तकता रहा, हर आते-जाते को .....। कुछ
लोग गाड़ी ले गली में आते ...तो उसे लगता ये सच्चे श्रद्धालु हैं.. पक्का बप्पा से
मिलने आयेंगे.. लेकिन वो तो गाड़ी पार्क करके चले जाते.. कोई ना आता ।
रात भर वो आरती के दीपक की लौ को संभाल कर बैठा
रहा.. उसे इंतजार था.. कोई आयेगा ! पूरी रात बिन खाये-पिये संजू ने अपना दीपक
जगाये रखा । खुद भी नही सोया और दीपक भी बुझने नही दिया । सुबह उसके मित्र और
पड़ोसी आये, तो उनसे बोला :- "आरती ले लो .. ! बप्पा आज अपने घर वापस चले जायेंगे..
पता नहीं ......फिर उनका इस अँधेरे में आने का मन होगा या नहीं ?"
इतना कहते ही उसके धीरज का बाँध टूट गया और फूट-फूट
कर रो पड़ा वो ।
*******
चित्रांकन व कथा : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास'
मार्मिक और सजीव चित्रण ! अपनी कॉलोनी के गणेश जी याद हो आये !! :) :) अंधेरों में क्या पता फिर आयें या न आयें !!
ReplyDeleteह्रदय से आभार ...!
Deleteबहुत अच्छी कहानी है .. :) ... उत्साह बचपन का सही पर वो उसका बचपना नहीं है ....कहानी के अंत में बाल सुलभ निराशा स्वाभाविक है .... लेकिन ज़िंदगी में बहुत से मौके ऐसे आते हैं ... जब लोग अकारण सहायता करते हैं ...निराश मन को ढाढस देते हैं ... जैसा कि उसे मूर्ति देने वाले ने किया .... उसके सेठ ने भी किया ...अपनी इच्छा शक्ति के दम पर वो प्रति वर्ष गणपति जी को अपने घर बुला ही लेगा .. :)
ReplyDeleteह्रदय से आभार ...!
Deleteकहानी का कथ्य भावपूर्ण बुना है आपने अनुराग जी। बालमजदूरी और गरीबी की हकीकत को दर्शाती, शिक्षा के अधिकार वाले इस समाज में ऐसे संजूओं का सरकारी विद्यालयों से गायब होना और फिर आंकड़ों से गायब रहना एक हकीकत है। सरकारों ने बाल श्रम के उन्मूलन का दावा भी कर लिया है। खैर, कहानी में आते नाटकीय मोड़ों से इसकी रोचकता और भावुकता में वृद्धि होती है, जो कि एक 'कहानी' की सुन्दरता कही जा सकती है, अन्यथा वास्तविक जीवन में बाल श्रम से दुकान चलाने वाले ऐसे 'सहृदय और उदार' सेठों का मिलना थोड़ा कठिन है। बच्चों का सामाजिक अनुकूलन धर्म और संस्कृति के पल्लू में होने को और इसी बीच उनके मनोभावों के विविध चित्रण को आपने सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है, जो अत्यंत सराहनीय है। गणपति के विसर्जन के साथ ही अपनी श्रद्धा को तिरोहित करने का कार्य कितना कठिन है,एक बाल मन के लिए यह शायद पत्थर के गणपति न जानें, और न हीं, आम आदमी समझ पाता है। वो तो आपकी समर्थ लेखनी ने इस बात को सुन्दरता से प्रस्तुत किया है। आप समग्रत: हार्दिक बधाई के पात्र हैं अपनी इस सुन्दर रचना के लिए। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसच कहा अपने शेखर जी, सेठ इतने भी उदार नहीं होते।
Deleteबहुत बहुत आभार भाई !
बहुत सुंदर बुना है ताना-बाना .....बच्चों में जो श्रद्धा भाव होता है वो हम बड़ों में कहाँ
ReplyDeleteअंत तक आते-आते आँख भर आयी ....सोचा जाए तो संजू और उसकी मका अकेले नहीं थे उस आरती में ..सारे पाठक उसके साथ खड़े बप्पा की विदाई कर रहे थे ....
एक बात जो आपने बहुत ही हौले से कह दी .....पूजा-अर्चना के लिये भी धन का कितना महत्व हो गया है आज के परिवेश में . सच्ची श्रद्धा कम ही दिखाई पड़ती है ....क्या ईश्वर भी धनवान का ही है ....
Deleteबहुत बहुत आभार !
बाल मनोविज्ञान को खूबसूरती से चित्रित करते हुए यह कहानी समाज के द्वारा कोमल बाल मन पर डाले गये नकारात्मक प्रभाव का भी आकलन करती है -'अँधेरों
ReplyDeleteमें क्या पता फिर आयें या न आयें '।लेकिन जिन लोगों
द्वारा बच्चे को सदाशयता पूर्वक सहायता पहुंचाई गई
उनका क्या प्रभाव पड़ा बच्चे के मन पर कहानी इस बाबत
कोई विवेचना नहीं करती,जबकि मुझे ऐसा नहीं लगता कि
उसे दिखाना अनावश्यक था ।
एक बात और, जो लोग बच्चे के भक्ति भाव से प्रभावित हो कर रोज दर्शन के लिये आते थे उनमें से एक भी आखिरी रात नहीं आया यह अस्वाभाविक प्रतीत होता है।
कहानी एक बच्चे के स्वाभाविक एहसासों और सामाजिक
संघातों की प्रतिक्रियाओं के इर्द गिर्द बुनी गई है और बचपन के उस मजबूर कोने तक हमें ले जाती है जहां खेलने की उम्र में उसके हाथ में चाय बनाने का सामान
और जूठी कप प्लेट गिलास पकड़ा कर उसका बचपन
क्रूरतापूर्वक छीन लिया जाता है।ऐसे माहौल मेंही ,निराशा
के ऐसे घटाटोप में ही आस्था की वह ज्योति उभरती है जो
समस्त निरुपाय और असहाय लोगों का संबल बनती है।दरअसल प्राणों की अदम्य जिजीविषा ही एक नए
आवरण में बच्चे के मन में भक्ति बनकर नईआशा का संचार करती है।इस बच्चे के मन में वह आस्था जब लोगों का ग्लैमर के प्रति झुकाव देखती है और अपनी श्रीहीन
स्थिति के प्रति संवेदनशील होती है तो उसका प्रोजेक्शन
देवता तक हो जाता है,और वह कह उठता है कि --
पता नहीं फिर उनका इस अंधेरे में आने का मन होगा कि
नहीं।
यहाँ पहुंचते पहुंचते भौतिक परिस्थितियों के दबाव के आगे
आस्था का सारा राजमहल चूर चूर हो जाता है और देवत्व
के आदर्श स्वभाव पर मानव की वास्तविक समस्याएं विजय प्राप्त कर लेती हैं।
यही इस कहानी की सफलता है।लेखक को बधाई।
बहुत बहुत आभार दादा।
Delete==================
मर्मस्पर्शी, सच्ची भक्ति साफ सुथरे मन की , गणेश उत्सव कई दिनो से है देख रहा हूँ , सबेरे से रात तक लाउड स्पीकर बजते रहते है, हर तरफ दिखावा ही लगा, ये कहानी पढ़कर लगा है गणेश उत्सव है अब। वेरी वेल डन भाई क्या लिखा है।
ReplyDeleteगणपती बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आना फिर से संजू के पास ....
अगले बरस तू जल्दी आना फिर संजू के पास…
Deleteबहुत सारी दुआ दे डाली आपने प्रसनीत भाई ..!
आभार ..!
बहुत खूबसूरत ताने बाने से रची मार्मिक कथा बधाई ,और वाह आपके ब्लॉग के लिए बहुत सुन्दर है .
ReplyDeleteमंजुल भटनागर
बहुत बहुत आभार!!!!
Deleteप्रेमचंद जी की कहानी ईदगाह याद आगई बिलकुल उसी अंदाज़ में एक बच्चे के दिल के जज्बात का नक्शा उतार के रख दिया अपने ....................बहुत ख़ूब जनाब सलाम आपकी क़लम को
ReplyDeleteतहे दिल से शुक्रगुजार हैं भाई ..!
Deleteएक बालक के निश्छल मन की पवित्र भक्ति का अत्यंत ही भावपूर्ण चित्रांकन उकेरा है आपने अपनी लेखनी के माध्यम से.सत्य है आज के भौतिकवादी परिवेश में मात्र आडंबर ही शेष बचे हैं.... पता नहीं उनका अंधेरे में आने का मन होगा या नहीं....पंक्ति अत्यंत मर्म स्पर्शी है..बधाई भावपूर्ण लेखन की.
ReplyDeleteह्रदय से आभार प्रियंका जी !
Deleteसादर अनुराग
कहानी में कहीं कोई बनावट नहीं है सीधे सीधे शब्दों में बात को कहने का प्रयास किया है एक के बाद एक स्थितियां प्रगट होती चली गयीं और अंत आ गया lकहानी की अंतिम पंक्तियाँ आपकी बात स्पष्ट कर सकीं l कहानी को अनावश्यक रूप से फ़ैलाने से बचाइये बस lविषय सच में विचारणीय है l भक्ति श्रद्धा सब कुछ फैशन हो गया है l सिर्फ celebration with pomp and show ..........मुझे लगता है शायद सबसे अधिक उजाला संजू के ही मंडप में है जहां सिर्फ भक्ति है और ऐसे मंडप से भगवान् कभी विसर्जित नहीं होते l
ReplyDeleteविषय को नवीन कलेवर में प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई l
जी ..!
Deleteजिधर सच्ची श्रद्धा भक्ति हो .. उधर सचमुच बहुत उजाला रहता है !
ह्रदय से आभार ..!
ab aapko apni keetaab likhne ke bare me sochnaa chahiye...bahut achchhaa collection ho gaya hai apake paas ...ye katha to bahut hi achchhi hai jeevan ke us kone jo chhu rahi hai jo bahut common hone ke bawjuud ham sochte nahi hain ...bahut khoob hai bhai aashirwaad aapko.
ReplyDeleteApka ashish sneh milta rahe.. bahut jaldi wo sapna pura hoga.. !
Deletebahut bahut aabhaar bhai !
कहानी में अद्भुत हुनर से बच्चे के मन में छिपे निश्चल प्रेम और भावों को दर्शाया, मुझे वो समय याद हो आया जब देवा हमारे घर पहली दफा आये थे,
ReplyDeleteकैसे नया उत्साह जाग उठता है , कैसे उनके विसर्जन का सोचकर ही परेशान हो जाते है..... आपने बखूबी उकेरा अपनी लेखनी से :)
ह्रदय से आभार ..!
Deleteबहुत बहुत बधाई आपको अनुराग भाई ,इतनी भोला और मासूम कथानक संजोना आम बात नहीं , रचना मासूम है ,संजू के किरदार का भोलापन और आपकी लेखनी का एक शोख अंदाज़ जो पाठक को बंधे रखता है कहानी के अंत तक ये दो चीज़ें हमें विशेषकर बहुत ही पसंद आई |
ReplyDeleteकाहानी प्रवाहमयी ,सुन्दर,सरस ,सुगढ़ है,इसको पढ़ने का अपना एक आनंद है
और ऐसा मौका देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया :-) :-)
आगे भी इसी तरह मौके देते रहिये ,
बहुत बहुत शुभकामनाएं :-)
ह्रदय से आभार ..!
Deletebehad maarmik, vaastvik kahaani bhaiya.
ReplyDeleteआभार ..!
Deleteबाल मन को समझना सहज नहीं होता है , बाल मन को समझना जैसे स्वयं बालक बनना, बाल मन की गहराई में उतरकर और उसके मनोविज्ञान को समझकर आपने जो कहानी का सृजन किया है वह बहुत सुन्दर बन पड़ा है, कहानी का गठन भी बेहतर है .. मैंने पहले भी एक टिपण्णी दी थी शायद प्रकाशित नहीं हुई.
ReplyDeleteस्नेह बनाइये रखिये नीरज भाई ..!
Deleteह्रदय से आभार ..!
@anurag ji ... uttam katha .. baal sulabh swabhaw ka sajiv chitrankan kiya apne ... utsav ki dhoom sabke man ko bhati hai ..par is sahaj katha me madhyam se samaj ki bhejbhaw purn mansikta par jo gahra prahaar kiya apne wo nisandehh man ko chhuti hai .. bhagwaan ko bhi dikhawe ki vastu bana diya logo ne jis dukaan ki sajawat jitni jyada .. uska sale utna adhik ..gunwatta se sarokaar nhi brand hona chahhiye bahut khub ..badhai :)
ReplyDeleteSunita jee
Deletehirdye se aabhaar ..!
sadar
एहसास जी आपको इस बेहद खुबसूरत कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई .....आपने एक कहानी में जीवन के कई पहलुओं को ..गरीब की जिन्दगी को ...सामाजिक ,तिजारत के कई पॉइंट्स पे तीक्ष्ण वार किया है ...सरकारी महकमा भी नहीं बच सका है आपकी कलम की धार से ....कहानी के अंत तक आते आते आपने ..त्योहारों की मनाये जानी वाली चक्काचौन्ध और सचे मन से भक्ति भाव से की जाने वाली पूजा वाले अंतर की खाई को भी कलम से रेखांकित किया है .... एक तीर ..और अनगिनत निशान आपने साधे हैं .......एक बार फिर से आपका बहुत बहुत अभिनन्दन आपकी कलम की धार न जाने और कितनी कमियों को उजागर करती है ..हमे इन्तजार रहेगा ..आपके दिमाग रुपी धनुष से छुटने वाले तीर का } साधुवाद
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत ... आभार चंदर भाई !
Deleteअनुराग आपकी कविताओं सी खूबसूरत है यह कहानी भी...बहुत भावुक...अंत तो दिल को छू जाता है. समाज की स्वार्थपरता को जिस तरह से आपने उजागर किया है, काबिले तारीफ है..सुंदर है. पूजा अर्चना में भी दम्भ..यह कटु सत्य है.. जो उभर कर आया है
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत ... आभार !!
DeleteBohot hie sundar and tender story hai anurag jiii.......ek baat behad achi lagi ki apne bure waqt mey bhi bache ke mann mey bhagwan ke prati itni shraddha.....characterization bhi accha hai....seth ji ki portrayal bohot acchi lagi.....awesome bro !! Likhte rahiyee.....! :)
ReplyDeleteBohot hie sundar and tender story hai anurag jiii.......ek baat behad achi lagi ki apne bure waqt mey bhi bache ke mann mey bhagwan ke prati itni shraddha.....characterization bhi accha hai....seth ji ki portrayal bohot acchi lagi.....awesome bro !! Likhte rahiyee.....! :)
ReplyDeleteBohot hie sundar and tender story hai anurag jiii.......ek baat behad achi lagi ki apne bure waqt mey bhi bache ke mann mey bhagwan ke prati itni shraddha.....characterization bhi accha hai....seth ji ki portrayal bohot acchi lagi.....awesome bro !! Likhte rahiyee.....! :)
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत ... आभार चंदर भाई !
Deleteबहुत ही सुंदर लेखन |एक एक चरित्र उभरा हैं |
ReplyDeleteह्रदय तल से आभार अजय भाई जी।
Deleteसादर
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletesunder prastuti. kabhi yahan bhi padharen, apka swagat hai http://hindvision.blogspot.in/2013/05/mistaken_6.html
ReplyDeleteSundar Sundar Sundar aur sundar.... ek chote baache ki nischal prem ki kahani.... aapne bachpan k dino mai kho gaya mai padhte padhte jab krishna janam k liye jhakiya tyaar karta tha .. ab wo prem raha kaha, kabhi " prem darshan aur chintan ka vishay hota tha ab to prem kewal aur kewal pradarshan ka vishway ho gaya hai"... bahut man ko itni khushi hui aapki ye kahani padh kar ki bata nahi sakta.. :) ishwar aapki soch aapki kalam dono ko hamesha hi prena deta rahe .... hare krishna
ReplyDeleteविदेशी धरा पे रह के भी देशी खुशबू बिखरते हो,
Deleteगौरव आप इन संस्कारों से बहुत मुझे भाते हो ।
आधुनिकता और दिखावा यूं है फ़ैला युवाओं में।
पर आप सच्ची हिन्द पुत्र बन कर छा से जाते हो ।
ह्रदय तल से आभार भाई ।
प्रोत्साहन टिप्पणी ह्रदय स्पर्शी है
सादर ।
एक बार फिर मेरी प्रिय.. आपकी अभिव्यक्ति क्षमता को नमन क्या उत्साह है कहानी बचपन में खुद कक्का से बड़ी गणेश मूर्ति बिठालने और ऐसे ही अन्य कई अपने वाकये कहानी में आगे बढ़ते याद आ गए लोगों को बुला बुला के दर्शन कराना प्रसाद बाटना क्या दिन थे ....पर क्या अंत और किस अंत में उलझा हूँ अब तक संजू के गणपति की विदाई और उसकी श्रद्धा का सेठ द्वारा सम्मान गज़ब जाल है भावनाओं के आप ही उभार सकते हो ऐसे चरित्र गज़ब अभिव्यक्ति छुपी है कहानी तो बस शरीर है आपके लिए आत्मा आपकी अभिव्यक्ति ही होती है सदैव की तरह
ReplyDeleteसोमू
Deleteह्रदय से आभार ..!
आज का दिन महत्वपूर्ण है बप्पा को याद करने ...
_/\_ जय गणेश !
सोमू
Deleteह्रदय से आभार ..!
आज का दिन महत्वपूर्ण है बप्पा को याद करने ...
_/\_ जय गणेश !
अनुरागजी,
ReplyDeleteआपकी "संजू के गणपती " कथा का रसग्रहण करते हुए मन पसीजताही चला गया ..
प्रसंग, पात्र, संवाद, भाषा सभी अंगोमें कथा अपनेआपमें जो तरलता जतन करती है उसमें आपकी सक्षम लेखनीकी भावनिरिक्षण शक्ती झरती, बहती दिखाई देती है!
बधाई एवम् सार्थक नवनिर्मिती की शुभकामना!
सह्रदय नमन विनोद अग्रवाल भाई !
Deleteआप से विनम्र अनुरोध है की संजू की कथा को मराठी भाषा में अनुदित करें जिससे बप्पा भक्ती का संदेश जन जन तक प्रेषित हो ।
सादर नमन
Wow !! Sir..wonderfully written, great devotion of a child, a very true story which usually happens but it teaches a lesson that God is wid everyone either rich or poor bcs god needs only great desire.
ReplyDeleteAnd hats off to you sir who writes his imagination beautifully in few words.
<3 heartily thanks..!
Deletebehalf संजू from सदर, jabalpur
ऐसे ही कई किरदार हमारे आस पास रहते हैं । जरूरत होती है चेहरे पढने की
और कहानी बन जाती है
आप जब लिखोगे तो मुझसे भी अच्छा होगा !
बहुत सुंदर और सजीव चित्रण किया है आपने सर। हार्दिक बधाई। आस्था और दिखावे का अनुपम उदाहरण हैं।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ..!
Delete_/\ _