सुबह दरवाज़े की घंटी की आवाज से आँखें खुली नरेन्द्र की ...और उसने खिड़की से झाँककर देखा, तो दूध वाला खड़ा था । पिछले तीन महीने का हिसाब बाकी था ...........पर उस दिन तो जैसे उसने सब्र ही खो दिया ! बजाये चला जा रहा था लगातार .......घंटी पर घंटी । जब नरेंद्र ने दरवाजा न खोला तो चिढ़ कर कुछ बड़बड़ाते हुये चला गया ।
फिर बहुत देर नरेंद्र बाहर न निकला ....जब आधे घंटे से अधिक हो गये तो उसने दरवाजा खोल कर चुपके से दूध उठा लिया और फिर धीरे से दरवाज़ा बंद कर लिया ।
अभी चाय का कप ले कर बैठा ही था कि सेल फोन बज पड़ा । वो फोन की तरफ बढा भी नहीं क्यूँकि जानता था कि कोई कर्जा-वसूली के लिए भली-बुरी सुनाने वाला ही होगा......क्यूँकि बुरे दिन आने के बाद, कभी करीबी लोगों की गिनती में आने वालों रिश्तेदारों और यारों-दोस्तों ने दूरियाँ बना ली थीं.....औपचारिक कुशल-क्षेम लेने से भी कतराते थे अब वो ……कि कहीं सामने से किसी मदद की प्रत्याशा ना हो जाए ! अक्सर आने वाली धमकियों से डरकर नरेन्द्र ने अपनी पत्नी और बच्चे को ससुराल भेज दिया था |
थोड़ी ही देर बाद दरवाजे की निचली सांस से पेपर खिसक कर आया । नरेंद्र फिर सोफे के ऊपर पैर जमा कर बैठ गया । ज्यों ही साइकिल के स्टैंड से उतरने की आवाज आई तो खिड़की से कैरियर पर अखबार लादे लड़के को जाते देख रहा था ।
अखबार की तरफ उसने नजर भी न दी । अखबार की तह के भीतर से झाँक रही एक विज्ञापन की रंगीन पर्ची को उठाया । देख कर पहले तो मुस्कुराया, फिर उसकी आँख नम हो गईं । ऐसे ही नये-नये जतन होते थे उसके भी, अपने व्यापार को नई दिशा देने के लिए । मकान गिरवी रख कर मोटी रकम कर्जे में ली थी । मशीने और लेबर बढ़ाये...काम आगे बढ़ाने के लिए ....उन सभी को याद करने लगा । वो अधिकारी भी याद आये, जो बिन घूस के दफ्तरों में घुसने न देते थे और वो टेंडर भी ...जिसे पाने के लिए उसने बिचौलियों को उनकी मर्जी मुताबिक पैसा खिलाया था । उसके मन में उठते भावों से विचार कौंधा :- "आँख के सामने जैसे भुन्गे मचलते हैं ....वैसे ही वो सारे थे, जो बुरा फंसता देख किनारा कर गए !" उसे कर्जें की वो तमाम रकम याद आईं, जिन्हें चुकाने के लिए उसके पास नीयत तो है पर फूटी कौड़ी नही ।
तभी किसी जीप के रुकने की तेज़ आवाज़ सुनाई दी । उसने देखा जीप से उतर कर चार हट्टे-कट्टे पहलवान जैसे बंदे दाखिल हुए बिल्डिंग में ....सहम गया वो उन्हें देख कर ।
सीढ़ियों पर उनकी पदचाप नरेंद्र की रक्त-चाप गति बढ़ा रही थी । तेज पसीने की धार से भीग गया वो । कुछ ही क्षण में चारों बंदे दरवाजा पीटते हुये चीख-चीख कर गालियाँ बरसाने लगे । पड़ोसियों का भी दिल दहल गया । अन्दर दीवार से सट कर, बुत सा बेजान खड़ा था नरेंद्र । जब उन गुंडों के शब्दकोष की सारी गालियाँ खत्म हो गईं तब लातों की तेज़ बौछार दरवाजे पर करने लगे वो । दरवाजे की तरफ नरेंद्र ने देखा, कुण्डियाँ हिल रही थीं और अब कि तब .....टूटने को ही थीं ! पड़ोसियों की बढ़ती भीड़ देख, जाने क्या सोच कर उनके प्रहार शांत हुए । फिर कर्जे का पूरा ब्योरा उन्होंने उधर खड़े पड़ोसियों को सुना दिया ।
पहले ही मकान, जेवर और खेती जा चुकी थी ....अब कैसे वो क़र्ज़-अदायगी का दिलासा दे इनको .....? इसी सोच ने जंजीरें डाल दीं थीं, नरेंद्र के पैरों में और वो अपनी जगह से टस से मस न हुआ ।
कुछ देर बाद वो लोग थक कर चले गए । पड़ोसियों के जो मन आया, वो भी बोलते हुये उधर से चले गए ।
देर तक उसी हालत में सुध-बुध खोया सा खड़ा रहा नरेन्द्र .....और जब होश आया तो उसके कदम एक कमरे की तरफ मुड़ गए । उधर अपने बच्चे की तस्वीर को टप-टप टपकते आँसुओं से जैसे धो ही दिया उसने । फिर अलमारी में रखी साड़ियों को जैसे छू कर कुछ महसूस किया ....फिर अचानक उधर रखी एक साड़ी उठा कर उसने सीलिंग फैन पर बाँध दी ।
काफी देर तक हिम्मत को बटोर कर, समझाता रहा वो खुद को, कि क्या मौत ही इलाज है, इन मुश्किल हालातों से छुटकारे का ? उसके अंतर्मन का भय उसे रोक भी रहा था । खुद को बहलाने के लिए कमरे से हाल, हाल से किचिन और फिर कमरे में आया । तभी नज़र, उधर पड़े अखबार पर पड़ी ।
अखबार की सुर्खियाँ पढ़ते ही ठहाका मार हँसने लगा । एक नोट बुक उठा उसने लिखना शुरू किया -
“आत्महत्या के कारणों को स्पष्ट कर रहा हूँ -
छलावा ही यह सब नजर हमें आता है,
भौतिक उत्पादों को ही सस्ता किया जाता है ।
जिजिविषा में जी के चरमरा रहें है जो लोग,
सस्ता लिख कर झुनझुना पकड़ाया जाता है ।
चुनाव आने को हैं, तो बेलन चला दिया !
डंडा महंगाई का तेल पीने रख दिया जाता है ।
जो चुनाव हुए खत्म, फिर हांकेंगे हमें !
अभी तो मवेशियों को पाल लिया जाता है ।
आप का बाप बना, ये अंतरिम दिख रहा है,
केवल दिलासा ही युवाओं को थमाया जाता है ।
तुम क्या कभी उत्पादों को सस्ता करवाओगे ?
पड़ोसी मुल्क बाजार को चट किये जाता है ।
हमारे कारखाने, लचर कराधान को रोते,
उधर 'ड्रेगन’ और भी 'एंटर' हुआ जाता है ।
गर व्यापार मसौदा हुआ तो कुछ बेचो भी !
मक्कारी में अपना उत्पाद रखा ही रह जाता है ।
फिर कचरे के दाम में उद्यमी ही बिकता है !
उसकी जान को ही और सस्ता किया जाता है ।
हर विभाग दोने-पत्तल लिए मुँह तकते हैं !
उत्पादक खुद अपनी तेरहवीं करवाता है ।
दक्षिणा में जान कई सपनों की जाती रही है !
नौकर बन विदेशी फर्म में वो पिस जाता है ।
युवा देश का और उसके ख़्वाबों की बातें !
कमज़र्फ ख्वाब ऐसे में भी कैसे आ पाता है ?
ख्वाब, चारपाई के खटमल पहले चूसते हैं !
बाद में शासकीय दफ्तरों का नम्बर आता है ।
फिर यकीन का अपना सौर मंडल बना है,
देखें अब बदले, कुछ जो न बदल पाया है ।
फिर काला टीका सपनों को लगाने के लिए,
मतदान का अवसर सामने चला आया है ।
उँगली पे लगा निशान देखते ही गए हम,
नाख़ून ही बढ़ा और कटते ही चला आया है ।
सवाल ये है कि ...............और क्या है बाकी ??"
..........................अखबार के उपर नोट-बुक रख आखिर फंदे पर लटक ही गया नरेन्द्र ।
तीन दिन बाद-
जब गंध बिल्डिंग में फैलने लगी और वसूली वालों का भी हंगामा बढ़ने लगा, तो पुलिस भी आ ही गई । दरवाज़ा तोड़ा गया तो देश का युवा उद्यमी साड़ी से झूलता मिला उन्हें । पास ही एक नोट-बुक के नीचे वो अखबार दबा पड़ा था जिसमे युवा उद्यमियों को आर्थिक सहायता और योजनाओं का ख़ासा सरकारी विज्ञापन रूपी समाचार था ।
*********************
: अनुराग त्रिवेदी ‘एहसास’
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ReplyDeleteBahut umda...yaar patr jhula kyon diya paatr ko? halaton se ladna dikha dete..itna marmik ant...badhiya katha chitran aur kavita bhi mast. Aaj ke parivesh ke hissab se sateek maar bhi aur waar bhi. Jai ho
ReplyDeleteजब जब वेदना अपने प्रवाह स्वरूप में बढती है,
Deleteजटिलतायें ही भूत सी पीछे सबके ही पड़ती है !
काल तो क्षणिक भ्रम है मित्र! जी के भी कई बार मरती है ।
आप, तुषार जी और राहुल का एक ही प्रश्न और वही लगा था मुझे भी की क्यों मरेगा किरदार पर भाई यही क्रूर सच्चाई हम रोज पढ़ते और देखते हैं। प्रश्न यही था की उसकी भाव संरचना में क्या आशा का कोई सेतु बंधेगा जो पहले ही खुद को गिरफ्त किया।
बहुत बहुत आभार । प्रयास रहेगा की आगे किरदार जीवट उभरे ( बिन फिक्शन के)
सह्रदय नमन !
अनुराग भैया ......
ReplyDelete"मौत अंत है नहीं....तो मौत से भी क्यूँ डरे....कि जाके आसमान मे दहाड़ दो".....!!!
आज अचानक ही मेरे मुख से "पीयूष मिश्रा" के बोल निकल गए....बेरोजगारी चिंता का विषय है पर ...... फिर भी सर्वशक्तिमान सब जानता हैं
तभी तो....
"मन करे सो प्राण दे, जो मन करे सो प्राण ले, वही तो एक सर्वशक्तिमान है
कृष्ण की पुकार है, ये भागवत का सार है कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है"...!!!
क्या नरेंद्र की मृत्यु से उसका समाधान हो गया....क्या अब उसके बच्चे ... उसकी बीबी को लोग तंग नहीं करेंगे ....???
ये सब सवाल से....ज़िम्मेदारी से कोई कैसे भाग सकता....!!!
कोई इतना भगौड़ा कैसे हो सकता .... ???
जब जब वेदना अपने प्रवाह स्वरूप में बढती है,
Deleteजटिलतायें ही भूत सी पीछे सबके ही पड़ती है !
काल तो क्षणिक भ्रम है मित्र! जी के भी कई बार मरती है ।
आप, तुषार जी और राहुल का एक ही प्रश्न और वही लगा था मुझे भी की क्यों मरेगा किरदार पर भाई यही क्रूर सच्चाई हम रोज पढ़ते और देखते हैं। प्रश्न यही था की उसकी भाव संरचना में क्या आशा का कोई सेतु बंधेगा जो पहले ही खुद को गिरफ्त किया।
बहुत बहुत आभार । प्रयास रहेगा की आगे किरदार जीवट उभरे ( बिन फिक्शन के)
सह्रदय नमन !
भाई जी बहुत सटीक अभिव्यक्ति है बजट के जंजाल में फंसे आम आदमी की ..
ReplyDeleteह्रदय तल से आभार मोहन भाई । स्नेह आशीष ऐसे ही दीजियेगा आगे भी सच्चाई लिखते समय न झिझक हो ।
Deleteसादर
Chacha aapki abhivyakt karne ki chamta vakai adbhut hai ..........DAKSHINA ME JAAN KAI SAPNO KI JATI HAI............kya gazab........wakai ehsas
ReplyDeletePar dukhant na karte
ReplyDeleteबहुत खुशी हो रही टिप्पणी पढ़ कर । साझा विचार
ReplyDeleteसचमुच जिसके सपने मरते हैं,
जीते जी यम प्राण भी हरते हैं।
क्या अंतर जो लटक गई गर्दन?
अराजकता देख शहीद रो पढ़ते हैं।
एक दिवस का शौक समारोह हुआ,
उसमे भी फंड से अपना घर भरते हैं।
ये लो एक और निकल रही अभिव्यक्ती पर नही इसे यही रोकता हूँ ।
बहुत मर्मस्पर्शी एहसास अनुराग भाई। मैं चाहूँ भी तो किसी एक पंक्ति या एक वाक्य को रेखांकित करूँ। जो आपने लिखा है वो एक कटु सत्य है और जिसका हल अभी भी नही मिल रहा। यह रचना सिर्फ एक अभिव्यक्ति नही हर मध्यम वर्ग की दास्ताँ है जो जूझ रहा है। शहर में ऐसे परिवार और गाँव में किसान। भविष्य क्या है कोई नही जनता क्यूंकि अपने देश में सब भगवान भरोसे होता है।
ReplyDeleteआज का राम अंतर में रावण लिए घूमता है,
ReplyDeleteजो उसके हाथो पकड़ बुराई को चूमता है ।
दस सर उसके साथ मुंह चलाते हैं अब के,
रोज भरोसा रस्सी पे लटक के झूलता है ।
बहुत बहुत आभार भाई । ( इस लिहाज़ से भगवान का भरोसा भी टूट रहा है ...है न ? )
स्तब्ध हूँ पढ़कर .. लेकिन क्या पलायन ही एकमात्र उपाय बच जाता है? ये सच है कि सरकार और प्रशासन कुछ नहीं करता .. लेकिन क्या हर बात के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? कुछ तो जिम्मेदारी अपनी भी होती है.. मैंने खुद देखा है अनुभव, सही जानकारी, दूरदर्शिता और गाम्भीर्य की कमी से लोग कुछ ऐसे कदम उठा लेते हैं जो इंसान को ऐसी स्थिती में ला देते हैं .. और कई बार अधकचरे ज्ञान, जीवटता की कमी और खुद की लापरवाही की वजह से भी अपने व्यवसाय को खो देते हैं और फिर सारी परिस्थिति का जिम्मा व्यवस्था और देनदारों पर डाल कर जीवन भर कोसते हैं और तंग आकर पलायन कर जाते हैं.. बहुत जरूरी होता है खुद की काबिलियत को जानकर किसी भी काम में हाथ डालना ...
ReplyDeleteकिसी भी परिस्थिती में लड़ना ही सबसे बड़ा उपाय है ...खुद को तो लटका दिया .. बिना सोचे की उस पत्नी और बच्चे का क्या होगा जो मायके गयी है ... उनके लिए एक बेबस ज़िन्दगी छोड़ कर क्या छुटकारा पाया... हम खुद की गलतियों का जिम्मा व्यवस्था पर डालकर कुछ भी हासिल नहीं कर सकते...न खुद को मारकर उन लोगों की जिम्मेदारी से मुह मोड़ सकते हैं जो हम पर निर्भर होते हैं.. सच्चाई को स्वीकार कर दोनों मिया बीवी हिम्मत जुटाते तो मिलकर कोई रास्ता जरूर निकाल लेते... और नहीं ही कर पाते तो जो भी रास्ता चुनते वो दोनों मिलकर चुनते ..... निधि
विनाशाकलाये विपरीत बुद्धी !
Deleteवैसे ही सम्मुख पात्र की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं हलाँकि उसे भी ख्याल आया और बैचेन हुआ। जैसा होता है न की लोग लड़ना भूल जाते हैं । जब चारों और से मोहरें बढ़ के आते हैं ।
हर तरफ मात ही मात दिखी ।
मुझे मन ही मन लग रहा था की कहानी को दिशा दूं । पर सिया यदि स्वर्ण मृग देख न मचलती तो सुखान्त होता वन की मधुर स्मृतियाँ ले घर आ जाते ...किन्तु ऐसा नही है ।
बहुत बहुत आभार की स्तब्ध हो कर निःशब्द नही रहे और ये प्रेरणा स्वरूप टिप्पणी मुझे मिली । आगे एक जीवट किरदार आएगा कथा में जो काल्पनिक न होगा ।
ह्रदय तल से आभार ।
Anurag ji,badhai.abhi ke mahaul se prerit rachna.
ReplyDeleteAnt achha laga.imandari,karmathta aur junoo ki shahadat.aatmahatya par sab prashna chinh lagate hain.koi us insan ke dard ko samajhkar use theek vaqt var madad kar karke use is kritya se bachata nahi.log to aata jate hue sabki khabar rakhte hain.(khud ki khabar bhale na ho).
Bilkul sahi chitran.aarthik kamzori me sab muh mod lete hain.khushhali me to paraye bhi aage peechhe ghoomte hain.
Is insani fitrat me kaash mutation sambhav ho pata.
Suicide note Narendra ka rosh darshata hai,is sadi gali vyavastha ke prati.desh ke thekedaron ke prati.
Bahut achhi rachna.
Dard me hi sabse achha srijan hota hai.
Kisi ki maut ke baad sarkar badi kriyasheel ho jati hai.yojnaye,kanoon ityadi.jinhe aavashyakta hoti hai us pukar koi nahi sunta.
Is kahani me hamare samaj ka ek cross sectional view hai.
Hamare vicharon ka samajik chalan ka sahi chitran hai.
Hum isse kuchh seekh le to rachnakar ka prayas sarthak hoga.
Ek aur baat.Narendra khudkushi nahi karta to bhi marta.ya to ghut ghutkar ya zalim duniyavalon ke haath.parivar ka khayal kiya.isliye to apne se door rakha takhi zalalat ki zindagi na jeeni pade unko bhi.
ReplyDeleteJo insan majbooriyo se tang aakar parivar sahit jaan deta hai,vaha kaun se prashn karega ye samaj?
Are yaha to aaye din khudkushiyan hoti hain.sadi se latakkar nahi.vo maut insan ko khud samajh nahi aati.
Vo jinko pyar hai chandi se ishq sone se.
Vahi kahenge kabhi humne khudkushi kar li.
बहुत ही खूब !
Deleteआपकी टिप्पणी ने कथा के हर भाव को गहनता से परख कर सच्ची और अच्छी टिप्पणी दी। एक लेखक समाज का दर्पण सा बन जाता है ।
चूंकी पाठक को अच्छा न लगेगा ये सोच लिखे तो गलत है । यही सोच कर नरेंद्र के फंदे पर मैंने गढ़ान लगाई। जबकि वो खुद भी व्याकुल हुआ ये दिखाते लगा की कहानी यहीं खत्म क्र दूं ।
बहुत बहुत आभार ।
आगे भी आपसे ऐसे ही आशीष टिप्पणीयों की आशा रहेगी ।
सादर
Likhawat khoob gazal aur bhi khoob..Wah !!
ReplyDeleteHar kisi ki kahani hai,.Bahut halke mai bhari cheeze likh diya.. :-)
बहुत खुशी हुई कमेंट्स पढ़ कर ।
Deleteह्रदय तल से आभार !
एक जूझते हुए , जिंदगी से हताश आम इंसान को चित्रित करती हुई मार्मिक पंक्तियाँ ....लेखन के लिए बहुत बहुत बधाई अनुराग
ReplyDeleteह्रदय तल से आभार अंजना दी !
Deleteबहुत मार्मिक कहानी है .....और मध्यम वर्ग की विवशता .....कटु सत्य है पर ......कष्टों का अंत आत्महत्या से ......पढ़कर भीतर तक हिल गयी .......ऐसा किसी के साथ न हो
ReplyDeleteसचमुच गुंजन जी यही चाह की ऐसा किसी के साथ न हो पर कहीं कोई अभी भी प्लान कर होगा
DeleteBehad maarmik kahaani aur fir aapkii sunder rachnaa... man ko chhoo gayi... bahut umdaa lekhan...
ReplyDeleteह्रदय तल आभार
Deleteआज के युवाओं कि मनस्तिथि को सटीक तरह से अलफ़ाज़ में उतार दिया है जनाब। ……… और आज कि अफसर शाही का अंदाज़ भी कहानी में बया किया है। ............. एक बात कहना चाहूंगा आज के युवाओं को कि आत्म्हत्या किसी परेशानी का हल नहीं है। …………… सादर
ReplyDelete
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया भांजे!
aaj ke rajnitik aur saamajik sandharb mein ek dum sach hai par end sad nahi mujhe lagta hai abhi bhi log lad rahe hai hum aap bhi bade ghar mein rah kar bhi lad hi rahe hai
ReplyDeleteबहुत खुशी हुई टिप्पणी पढ़ कर !
Deleteसच ही है कुछ लड़ रहे, कुछ हैं झगड़ रहे
कुछ किस्मत पे मढ़ रहे ,कुछ है डर रहे।।
बहुत बहुत आभार ।
sir your story showed the pathetic situation of a common man. it was based on contemporary issue, but indeed the question of pessimism, dejection was worth asking. when we know we are sitting on volcano then we try to increase the resiliency more.
ReplyDeletehowever we like the optimism, fight, struggle but indeed the blue makes the impact always, it lefts you in a state of trauma.. and you have beautifully portrayed that.
it was short yet effective. and the suicidal note was painful but sarcastic as well, which fulfill its purpose completely.
Savitaji
DeleteAt the time, when i thought to share this story on blog, I was in the quandary state of mind .....just because of the simple perspective of my own, that no one commits suicide with his own delight...... only some extreme kind of complicated conditions, may compel a person to take such a step and particularly main character of this story, narendra is hidden beside everyone who is going through these kind of terribly sticky situation........
though, I share it ...and was eagerly waiting for your motivating comments .... and, here your comments, proved that I was not wrong.
Heartily thanks for your precious comments ...
God bless ! And keep motivating me in the future as well.
अनुराग जी इस कहानी में हर कोई खुद का अक्स पाया होगा ... बेहद मर्म स्पर्शी ...
ReplyDeleteसुकून से जीने कहाँ देती है ज़िन्दगी
ठगी सी हँसी हँसती रहती है ज़िन्दगी
सोच कर ये पेशानी से चूता है पसीना
भला क्यूँ इतना दर्द सहती है ज़िन्दगी ...
विवेक सिंघानिया
ज़िन्दगी की बारीक लिखाई, हमें न समझ आई।
Deleteजिल्द सबकी भले अलग पोथी एक सी बनाई।
सच कहा लिखते वक्त नरेंद्र को मैंने भी जिया । बहुत मार्मिक था उसका बच्चे की तस्वीर छू कर महसूस करना और अलमारी के पल्ले खोलते ही साडीयों को छूना।
बहुत बहुत आभार भाई ।
आपकी पहली टिप्पणी ब्लॉग पर जो मुझे बेहद उत्साहित कर रही है।
*** आपका मुक्तक बेहद मर्मस्पर्शी है।
सादर !
प्रिय भाई अनुराग ,आप की कविताओं की अपेक्षा मैं कहानियों का अधिक कायल हूँ।
ReplyDeleteमुझे लगता है कि आप मूलतः कहानीकार हैं इसके बाद और कुछ।आप की सजग आँखें जब
जीवन के बिम्बों को पकड़ती हैं तो उसमें से दर्द और करुणा की एक एक बूँद निचोड़ कर कलम की स्याही बना लेती हैं।लेकिन न जाने क्या बात है कि इसकहानी को जीवन देते समय आप जल्दबाजी में थे , आप जल्द से जल्द इसे एक अंत दे कर निवृत्त होना चाहते थे ।यही कारण है कि जो बातें कहानी के रूप में,विभिन्न
चरित्रों और घटनाओं तथा माहौल और परिदृश्य के रूप आनी चाहिए थीं वे कविता शैली में पाठक के ऊपर थोप दी गईं।कहानी में नायक के आत्महत्या के पीछे भी यही कारण है।कहानीकार कहानी तथा उसके सभी चरित्रों का माता-पिता दोनों होता है।समय पूर्व सर्जरी द्वारा प्रसवित शिशु की तरह जल्दबाजी में पूरी
कर दी गई कहानी कहीं न कहीं अविकसित रह
जाने के दोष से बीमार होती है,और फिर वह कथाकार के नियंत्रण से बाहर जाकर अपने लिए एक सुविधाजनक अंत खोज लेती है।लिखते समय पात्र अक्सर जीवंत होते हैं,हो सकता है कि अगर नरेन्द्र कापूरा संघर्ष, व्यवस्था का आदमख़ोर चरित्र, संकट में लोगों के पलायन के साथ मदद करने वाले हाथ (जो सचमुच होते हैं) भी दिखाए गए होते, तो नरेन्द्र आत्महत्या या संघर्ष में से एक चुनने के लिए स्वतंत्र होता ।तब यदि वह आत्महत्या भी करता तो बहुत से चेहरों से नकाब हटती ।मेरी राय है कि कुछ दिनों बाद आप इस कहानी का पुनर्लेखन करें।
I agree with u
Deleteदादा ...सह्रदय नमन !
Deleteआपकी टिप्पणी पढ़ कर गदगद हूँ, कारण आपको स्पष्ट भी कर चुका हूँ कि आपकी टिप्पणी न केवल मुझे अपितु मेरे कुछ अन्य साहित्य मित्रों के लिए भी प्रेरक होती है ।
संदर्भित लघु कथा पर जो आपने कहा एक दम नीतिपूर्ण और उचित है । उस दिन अखबार के मुख्य पृष्ठ पर चुनावी बजट और अंदर के किसी पृष्ठ पर व्यापारिक मंदी और कर्ज की मार से जूझने मे नाकाम एक शख्स की आत्म हत्या की खबर छपी थी ......दोनो ही खबरों की आपस में एक सह-संबद्धता सी लगी ..... जेहन से प्रतिक्रिया स्वरूप ये अभिव्यक्ति निकली । उस समय सूक्ष्म आकार रखा कहानी का.....क्योंकि उस समय मुख्य उद्देश्य तो मन में उठते विचारों के झंझावातों को संकलित करना ही था ....... पर आगे कहानी का भविष्य मेरे मन में अच्छा मालूम हो रहा । इसे फिर बुनने का संकल्प है।
इस कथा का स्वरूप उस खबर पर ही आधारित है और मदद के हाथ का प्रतिशत अनुपात 10: 90 ही रहता है.......दस ही मदद पाते हैं और 90 ( उनही 90) का जिक्र है किरदार में .....जो कभी कभी तो अपने अंदर भी जीता, सांस लेता अनुभूत करता हूँ ।
पर ....फिर लिखूंगा एक जीवट किरदार को लेकर...... और तब कहानी बढ़ेगी, कहानी सी ।
ह्रदय तल से आभार .....!
आगे भी ऐसे ही मार्ग दर्शन दीजियेगा ....
सह्रदय पुन: नमन !
एक और विनती दादा ....
ब्लॉग में ही दो और कथाएँ हैं
18 किमी का सफर
और
आखिर क्यों ?
और मेरा प्रथम प्रयास जिस पर अपरिहार्य कारणों से टिप्पणी नही आई ।
सविनय पुन: निवेदन है कि फिर मासूम सवाल पढ़ कमेंट्स दीजियेगा
सादर !
किसी एक पंक्ति पर वाह लिखना सम्भव नहीं हो रहा अब...पूरी रचना खत्म होते होते एकदम निस्तब्धता है मन में लेकिन सच है भाई...एक कडवा सच ...जिससे हम मध्यमवर्गीय रोज दो चार कर रहे हैं|.....बहुत मार्मिक संस्पर्शी रचना के लिए शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार ।
Deleteइस कडवे सच को कहानीकार के नजरिये से बदलना ठीक नही लगा । फिर वही ख्याल आया की उस कहानीकार की कलम चलते हाथ कांपते होंगे जो सबसे उपर है या नहीं भी क्योंकि कौन कब क्या करेगा उसे ज्यादा है पता ( वो कथाकार सबसे ऊपर है )
ह्रदय तल से आभार !
सादर !
सुंदर अभिव्यक्ति किन्तु मानव जीवन में निहित कई सवाल अपने पीछे छोडती हुयी ...
ReplyDeletehttp://kalamse21.blogspot.in/
आपकी भाव अभिव्यक्ती पढ़ी और सच जानिये मेरा उत्साह बढ़ा है की पात्र की वेदना को जागने आपने आदर्श दर्शन दिया। खुशी और बढ़ेगी जो साझा करें टिप्पणी में।
Deleteबहुत बहुत आभार !
सादर
ये कहानी नही है और न अन्त में कोई कविता है, वास्तविकता है आज के सियासती सामाजिक परिवेश की। अनुराग भाई कल पढा था मैनें आपके इस ब्लाग को, कुछ तकनीकि खराबियों के चलते कल कमेंट नही कर पाया इसमें, जब मुझसे रहा नही गया अपने मनोभाव दर्शाये बिना तो मैनें आपको फोन किया (पूछा भी नही मैनें कि आप बात कर पाने की अवश्था में हैं या नही बस शुरु हो गया मैं)। बोलता ही गया जबतक मन का बर्तन खाली नही हुआ। आज बहुत से नरेन्द्र है इस देश में जरूरत है आकाँओं तक संदेश पहुँचाने की, आपके इस लेख ने यह काम बखूबी किया है। आपके वृहद सोच को मेरा सलाम।माँ सरस्वती से प्रार्थना करूँगा कि आपकी सोच और कलम को ऐसे ही अपना आशीर्वाद प्रदान करती रहें। इस सन्देश को प्रेषित करने के लिए आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteभाई
Deleteनरेंद्र की असफल जिन्दगी ने मुझे सफल कर दिया,
स्नेहिल आशीष से ह्रदय कलश अपने मेरा भर दिया।
भाई बहुत बहुत आभार ! आगे इस कहानी को फिर से जीवट रूप दूंगा जैसा ओम प्रकाश दादा ने कहा और कहता रहा हर टिप्पणी में की आएगा पात्र जो काल्पनिक न होगा।
फिर तो आपको पता है यदि आसफल हुआ आपको जूता नम्बर 11 ही फेंक कर मारना है ।
सादर
एक सत्यपरक अभिव्यक्ति....सत्य है आत्महत्या कष्टों का विराम नहीं है। परन्तु किसी एक कहानी का अंत सुखद करने से कष्टों का अंत कहाँ संभव है जो एक माध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय परिवार सहन करता है ।आत्महत्या को कायरता की श्रेडी में तो रखते हैं हम परन्तु उस जीवित व्यकि की मनोव्यथा का आभास भी कितना दारुण होता है जो वह जीवन पर्यन्त जीवित होकर भी मृतक की तरह होता है।
ReplyDeleteबहुत ही तार्किक और संदर्भित टिप्पणी । जिसमे आपने साझा अभिव्यक्ती से नरेंद्र के मन को पढ़ लिया हो ।
Deleteटिप्पणी और अभिव्यक्ती के लिए सह्रदय नमन
सादर
मनुज यह जीवन विषम व्यथा
ReplyDeleteकुटिलताओं की कुटिल कथा
वैमनास्यों का विषम जाल
बिछा कर हँसता है कलिकाल
ठठाकर हंसती है नियति
सहस्त्रों होंगे फिर छल् बल
कहाँ मिलेगा फिर संबल
kya kahu kya likha hai,vartaman ki sthiti ankho k samne laakr rakh di, atmahatya hi ekmatr rasta hi nahi bach jati, atmbal ho to fir nayi shuruwat ki ja sakti hai.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार तरु जी !
Deleteसादर
मार्मिक...
ReplyDelete~सादर
ह्र्दय तल से आभार अनिता जी !
Deleteसादर !
किसी के वेदना को फील कर के लिख पाना बहुत बड़ी बात है ........ बहुत बेहतरीन ..........
ReplyDeleteआत्महत्या कायरपूर्ण है, पर जो इसके लिए वजह बनते हैं, उनका क्या ??
मन को हिला दिया .......बेबस युवा ...को हारते देखना ..दर्द देता है | आपकी लेखनी ने बेबसी को असरदार तरीके से उजागर किया ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार भाई ! हाँ आत्म हत्या कायरतापूर्ण तो है, पर साफ दिल वालों को करते वक्त बहुत बहादुरी लगती है। नरेन्द्र के पात्र को हारता देख कर मन हुआ कि पटकथा ही बदल दूँ .. पर शेष है !
ReplyDeleteजब तक कारण न बदले कुछ नही बदल सकता !
सह्र्दय नमन !
bahut bahut marmik lekhan.... shinning India ki asli tasveer kya hai ek dum saaf kar diya aapne.... sarkar nayi nayi neetiya lati hai aur un neetiyo se jitna paisa milta hai usse jayada to ghoos dena padhta uss paise ko release karne wale officers ko... aur kewal moral baato se pet nahi bharta, marna kaun chahta hai par jab jeevan maut se katin ho jaye to insaan kya kare.... kitna bada durbhagya hai humare desh ka .. ek taraf Mircrosoft k CEO ek bharatiya mul k insaan bante hai aur hum sab aaise khush ho jate hai, par aapne desh mai ek jawan bill gates kahi kisi gaon mai mar raha hai uske bare mai nahi sochte... aapki kalam aur lekhan ko mera sadar naman .... kuch baate aaisi chot karti hai jo bas dil janta hai , aapka iss lekh ne bhi kuch aaisi chot di hai dil mai... hare krishna
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित और सन्दर्भित टिप्पणी । पात्र नरेन्द्र जुझ रहा था आरजकता के विष दंश से .. कहानी में स्पष्ट कहा मैने आंख के सामने घुमते भुंगे ( वो छोटी मख्खियाँ ) सरी की जिन्हे हम हाथ हिला कर भूलने की कोशिश करते हैं।
Deleteबहुत ही सटीक और प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी !
सह्र्दय नमन गौरव !
Bahut Umda...Satya....
ReplyDeleteआभार ह्रदय तल से !
Deleteएहसास भाई ...क्या बात है ..आपने ऐसी ज्वलंत समस्या को अपनी लेखनी से पन्नों पर उकेरा है कि एक तीर से कई निशाँ अपने मारक परिधि में ले लिए हैं ...सच एहसास जी आज भारत का उद्योग "ड्रैगन " कि मार को झेलने में असमर्थ पा रहा है ...आज हमारे हर त्यौहार में इस्तेमाल होने वाली हर वास्तु पर " ड्रैगन " का ही कब्जा होता जा रहा है ..चाहे वो राखी हो, दीपावली के पटाखे हों ,होली कि पिचकारियाँ हों , दीपावाली कि रौशनी कि लड़ियाँ हों ,...बच्चों के खिलौने हों ..हर उद्योग उसके मार से ग्रस्त है ..फिर आपने सरकारी महकमों के "कैंसर " रिश्व्त को भी लेखनी कि चुभन से दर्द को उकेरा है | बुरे वक़्त में " चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाने कि व्यथा को बखूबी उल्लेखित किया है | आपने एक और बहुत बड़ी बात इस लघु कथा में लिखी है कि वो दुखी व्यक्ति वक़्त कि ही मार झेल रहा था ,,,उसके प्रयासों में कमी नहीं थी ..क्योंकि आपने लिखा है कि .देने कि नियत तो थी ,,मगर वक़्त के हाथों वो मजबूर था | एहसास जी ..सच कहूं ..सबेरे जो न्यूज़ पेपर आता है ...कभी ऐसा नहीं होता है कि ..एक ऐसी ही न्यूज़ उसमे ना हो ,,जिसे आपने रेखांकित किया है | जमाने का बहुत ज्यादा " भौतिकतावाद " कि चादर ओढ़ाने का असर ऐसे अंत के रूप में भी सामने आता है |
ReplyDeleteआप अपनी लेखनी कि मारक छमता को हेशा धार देते रहिये | धन्यवाद |
आदर
Deleteणीय चन्दर भाई !
ये स्नेह यूँ ही सदा बना रहे,
कोमल पत्ता सदा हरा रहे !
हार जीत का पता नहीं है,
स्नेह से ह्र्दय मेरा भरा रहे!
देते रहें आशीष ऐसे ही,
उसी बोल मेरा खरा रहे !
खोट लगने न पाये इसे,
पन्ना मेरा सदा हरा रहे !
ह्र्दय तल से आभार भाई!
आपकी टिप्पणी की प्रतिक्षा,
मुझे और सभी मेरे प्रिय मित्रों को थी !
ह्र्दय तल से आभार !
पुन: आभार
सादर
अनुराग भाई ... सादर नमन ... क्या बाण बींधा है ... सीधा पुतली पर लगा है ... आपका पंखा तो मैं पहले से ही था ... पर इस बार तो आहा .. बस अंत थोड़ा खला मुझे हालांकि मैं मानता हूँ कि बात करने और हालात का सामना करने में धरती और आकाश जितना ही अंतर है .. पर फिर भी यदि मैं स्वयं को नरेंद्र के स्थान पर भी रखूं तो भी यह कभी न कर पाऊं .. क्योंकि मेरा मानना है कि देर सही मगर ईश्वर के घर अंधेर नहीं है .. और फिर भाई घुड़सवार ही गिरते हैं मैदान-ए-जंग में ..
ReplyDelete.
पर फिर मैं यह भी सोच रहा हूँ कि असल में यह हकीकत है .. ऐसा हो रहा है इसलिए शायद आपने यूँ अंत करा हो .. फिर यदि यूँ न हो तो साहित्य समाज का दर्पण कैसे कहलायेगा ... कवि और लेखक में असल में शायद यही मूल भिन्नता होती है कि कवि कल्पनाओं की उड़ान भर लेता है जब चाहे .. कभी भी ..कभी कभी तो बिना चाहे भी .. परन्तु एक लेखक चाह कर भी समाज को बेदखल नहीं कर पाता है .. आपका लेख सामयिक है ... और आपने जो उपसंहार लिखा है वो वाकई में सराहनीय है .. उसमें आपने सारे संसर्ग दिये हैं .. आपको सादर नमन |
आपका स्नेहाकांक्षी
मनीष
अदभूत भाई!
Deleteसह्रदय नमन !
प्रयास सफल होता समझ आ रहा है। पुन: आभार सभी का ...
सादर
आज क परिदृश्य का बहुत ही सावधानी से प्रस्तुति करण किया है कैसे हमारी सरकार के झूठे वादो ओर योजनाओ कि पराकाष्ठा हो गयी वो बहुत ही सटीक तरीके से बताया आपने। …कई बार इंसान आपने आप से इतना नहीं हारता जितना क बाहरी दुनिया के झूठे आवरण से डर जाता परन्तु फिर भी हमें खुद पे विश्वास को कायम रखते हुए उसका सामना करना आना चाहिए बस यही सीखना होगा। भट ही मार्मिक चित्रण … बहुत बहुत शुभकामनाए। …
ReplyDeleteमंदीप
बहुत बहुत आभार मंदीप जी !
Deleteसादर
anurag ji bahut hi marmik abhivyakti ..bahut sahi drishya darshaye aapne..lekhan bahut hi umda ..dil tak pahuncha ..aur kavita bhi bhabhakti hui ekdum !! is najariye se dekhe to lagta yhi hai ki marne ke siwa aur raasta bhi kya tha ... par agar marna hi tha to biwi bachho ko kis ke bharose choad jaate hain aise log? jab wo har tarah se khali ho kar marne ko aasan samjhte hain to biwi bachho ko kya karna chaiye ye mai kai bar sochti hun ..aas-pass aisi kai ghatnaayein hui hain ..jinke biwi bachho ko dekha hai maine jeevan to jee hi rahe hain wo bhi jise jana hota hai wo chala hi jata hai ..wo bs ek pal hota hai jb wo kuch sochta hi nahi ... par suicide samasya ka hal nahi ..matdaan ek avsar to hai hi basharte sab uska upyog kare ...ummeed pe duniya kaayam hai ..magar khud ke karam bhi karne hi chaiye ..haan ek baat aur kai baar bahut jyada paane ki laalsa mei bhi aise kadam utha lete hain log jarurat se jyada har cheej daanv pe laga dena samjhdaari nahi ..jitni chadar ho utne paanv pasaarne chaiye ..yakayak ameer aur suvishapooena hone ki laalsa bhi insaan ko karj aur aatmhatya ki khai mei dhakel deti hai
ReplyDeleteaaj bahut din baad aapke blog pe aayi blog ka ye naya roop bahut hi sukhad laga :-) aisi arthpoorna rachna ke liye badhai aapko
ssneh
parul
पारुल जी
Deleteबहूत ही अच्छी टिप्पणी आपकी लगी जो ये बता रही की आपको नरेंद्र के निर्णय उतना ही दुःख हुआ जितना मुझे हो रहा था ।
यही मुझे लगा की यदि झूठे दिलासे या आदर्श इसे दूं तो पात्र बच जाएगा पर धूल दर्पण में आ जायेगी। सम्भवतः जो ऐसी परिस्थीती में फंसा होता उसके सोचने समझने कि क्षमता खो सी जाती।
बहुत खुशी हुई और चाहूंगा भावी पात्र उभरे जो सकारत्मक उर्जा से भरा हो।
पुनः आभार ! ब्लॉग को सरहाने और कथा के मर्म तक पुहंचने के लिए।
सादर
अनुराग भाई.. सर्वप्रथम तो विषय के चुनाव और प्रस्तुति की बधाइयां |
ReplyDeleteजैसा कि हमने पहले भी कहा ,कहानी में सरस प्रवाह बहुत ज़रूरी होता है ,जो कि आपकी लेखनी में स्वतः आ जाता है |
एक रचनाकार की दृष्टि से देखा जाये तो जो भी कहा गया वो कटु ,मार्मिक सत्य है, एक विचारणीय प्रश्न है ,चिंतन मंथन का विषय है |
आपने उस युवा की उदासी लिखी ,मायूसी लिखी | ये पूर्णतः रचनाकार का अधिकार होता है कि वो रचनातत्व प्रौढ़ रूप से किसे बनाना चाहता है ?
वेदना को या उससे उपजे साहस को ?
पर हाँ व्यक्तिगत तौर पर हमें ये भी लगता है कि सारे फनकार ,सारे रचनाकार अपने आप में एक जलता दीपक भी हैं जो सिर्फ अँधेरा देखना नहीं अपितु उसे मिटाना भी जानते हैं |
अँधेरा दिखाने का काम आपने बखूबी कर दिया ,
मेरा व्यक्तिगत आग्रह है कि अब अँधेरा मिटाने वाला भाग भी आप अपनी ही कलम से रचे |
आपके अन्दर के रचनाकार और स्वयमेव पूर्ण इस रचना को पूर्णाहुति वही होगी |
बहुत ही प्रेरक टिप्पणी भाई निखिल दादा ओमप्रकाश की टिप्पणी की तरह ही बहुत ही खूब ! जैसा की फोन पर बात हुई की आपेक्षा की थी मैंने । और आपने बस दिल को छू लिया।
Deleteआने वाले पात्र पर ख़ास नजर करना यही कहूँगा ।
हार्टली थेंक्स।
बहूत बहूत आभार !
परिस्थितियाँ बद से बदतर होती जा रही हैं |
ReplyDeleteदुखद अंत समेटे सुन्दर , सार्थक रचना |
सादर
आकाश जी
Deleteह्रदय तल से आभार मित्र !
आदरणीय अनुराग भाई जी बेहद मार्मिक, स्तब्ध एवं दिल दहलाने वाली घटना का चित्रण किया है आपने, पढ़ते पढ़ते एक अजीब सी हलचल हुई मन उदास हो गया, किस तरह से एक सज्जन व्यक्ति न चाहते हुए भी दुर्जन हालातों का शिकार होता चला गया. आपकी कलम बहुत ही धारदार है अनुराग भाई जी कहानी के बीच में छोटी छोटी द्विपदियाँ वर्तमान परिस्थित की समस्याओं को उजागर कर रही हैं. आपको बहुत बहुत बधाई भाई जी
ReplyDeleteभाई जी ,
Deleteआपकी प्रोत्साहन टिप्पणी की प्रतिक्षा कर रहा था। बहुत खुशी हुई आपकी टिप्पणी पढ कर ह्रदय तल से आभार भाई। ऐसे ही स्नेह बनायें रखें !
सादर
Truly depicted the story of a common man...
ReplyDelete" ख्वाब, चारपाई के खटमल पहले चूसते हैं.... " is really impressive......
जुडी जुडी बातें हैं । जो पात्र के अंतर से उठीं
ReplyDeleteपड़ोसी मुल्क बाजार को चट किये जाता है ।
हमारे कारखाने, लचर कराधान को रोते,
उधर 'ड्रेगन’ और भी 'एंटर' हुआ जाता है ।
गर व्यापार मसौदा हुआ तो कुछ बेचो भी !
मक्कारी में अपना उत्पाद रखा ही रह जाता है ।
फिर कचरे के दाम में उद्यमी ही बिकता है !
उसकी जान को ही और सस्ता किया जाता है ।
हर विभाग दोने-पत्तल लिए मुँह तकते हैं !
उत्पादक खुद अपनी तेरहवीं करवाता है ।
दक्षिणा में जान कई सपनों की जाती रही है !
नौकर बन विदेशी फर्म में वो पिस जाता है ।
युवा देश का और उसके ख़्वाबों की बातें !
कमज़र्फ ख्वाब ऐसे में भी कैसे आ
हार्दिक आभार आपकी प्रोत्साहन टिप्पणी के लिए ।
पहले तो देरी के लिये क्षमा
ReplyDeleteकहानी और साथ में गज़ल भी. भई कमाल है.
आपकी कहानी आज की कड़वी सच्चाई का बयान करती है. बेरोजगारी, सपनों का टूटना, आदमी का अकेलापन, देश की आर्थिक नीति—सभी को समेट लिया आपने इस कहानी में. शैली भी सुंदर है. और गज़ल— सुंदर सी
सिर्फ एक प्रश्न—कया नरेन्द्र के पास कोई और उपाय नहीं था. यह किरदार ज़्यादा जुझारू होता और कोई नई राह दिखाता तो क्या कहानी ज़्यादा निखर सकती थी. पर हां इससे आप जो आज की मुश्किलों को हाईलाईट करना चाह रहे हैं, वह प्रभाव थोड़ा कम हो जाता. शायद इसीलिये आपने उसका चित्रण इस तरह किया है.
बहुत ही खुशी हुई आपका प्रश्न पढ़ कर! वैसे लिखते समय आत्ममंथन किया तो लगा नहीं सच्चाई तो यही है की परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न होती तो सारी आस्थाएं टूट जाती जैसे एक पल में हाथ से छूटे कांच के जार को टुकड़े होते नही रोक सकते ।
Deleteफिर सुपर हीरो को कल्पित नही किया जो लपक कर उसे थाम ले । मुझे लगा ऐसा लिखना नरेन्द्र के मर्म को झुठलाना है।
फिर भी यही कहूँगा क़ी आगे पात्र जो आएगा वो बहुत जीवट होगा।
हांर्दिक आभार गीता जी !
नमन "
ReplyDeleteन जाने कितनी खबरें आये दिन पढ़ने को मिलती हैं...हम उन्हें पढ़ते हैं...कभी कभी नहीं भी पढ़ते और पन्ना पलट देते हैं.....किसी की मौत के लिए भी हम समय नहीं निकाल पाते ......बहोत प्रभावशाली लगा तुम्हार प्रयास ......सोचने पर मजबूर तो किया ..कि लोग किन किन हालातों से गुज़रते हैं.....मौका दिया यह जानने का कि हम बहुतों से बेहतर हालत में हैं...शुक्रिया अनुराग यह एहसास दिलाने के लिए
ह्रदय तल से आभार सरस जी ! आपकी प्रोत्साहन टिप्पणी की प्रतिक्षा कर रहा था। बहुत खुशी पढ़ कर ।
Deleteसादर नमन !
हम कितना भी कहे की झूझना चाहिए था पात्र को परन्तु जिन्दगी और जिजिवेषा जब दौराहे पर ले जाती हैं तो बस हाँ /ना की एक पारदर्शी रेखा होती हैं जिसपर जीवन और मौत दोनों आलिंगन को आतुर होती हैं ...........
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी बेहद प्रोत्साहित कर रही है । एक जीवट जुझारू चरित्र का निर्माण कथा में सोचा तो था पर कथाक्रम ऐसा ही कह रहा था की उपचार मात्र यही है की अकेले ही पलायन कर ले ।
ReplyDeleteपात्र को गड़ने के बाद खुद विडम्बना झेल रहा था की और सभी टिप्पणीयों का असर भावी शिल्प में अवश्य मिलेगा।
ह्रदय तल से आभार !
सादर
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ReplyDeleteBahut hi achhi rachana hai. Dil ko chhu gayi. Jo bhi suicide karata hai wo jeevan se puri tarah haar chuka hota hai.
ReplyDeleteहार्दिक आभार भाई रितेश जी !
ReplyDeleteसादर
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट (DREAMS ALSO HAVE LIFE) पर आपके सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। धन्यवाद।
ReplyDeleteसह्रदय आभार ! लिंक साझा कीजिये भाई।
ReplyDeleteये लघुकथा मन को अंदर तक झकझोर देती है... समाज की बहुत ही कडवी सच्चाई को दर्शाया है आपने... बिलकुल सही कहा... कि सभी लोग पैसों के रिश्तेदार होते हैं... अगर आप आर्थिक परेशानी से जूझ रहे हैं तो रिश्तेदार ही सबसे पहले दूरी बनाते हैं.... और कई बार हालात इतने ख़राब हो जाते हैं कि इंसान को अपनी ज़िन्दगी को ख़त्म करने के अलावा कोई और उपाय नहीं सूझता....
ReplyDeleteबेहद मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना.... बधाई आपको... इतनी सुंदर प्रस्तुति के लिए...
ह्रदय तल से आभार महिमा जी !
ReplyDeleteहार्दिक नमन !
जीवन के संघर्ष और उतार चढाव दिखाती कहानी अंत दुखद है लेकिन हताशा में निराश आदमी कभी एसे फैसलों के लिए मजबूर हो जाता है
ReplyDeleteas well as poetry is also good.keep it up.
Heartily thanks sir !
DeleteBadhiya maarmik par ek sandesh bhi hai ki zindgi se bhaagna samsayo ka hal nahi hai.Aur zua khelna hai khelo par ek zuari ki tarah ki Abhimanyu na ho jaaye
ReplyDeleteBadhiya maarmik par ek sandesh bhi hai ki zindgi se bhaagna samsayo ka hal nahi hai.Aur zua khelna hai khelo par ek zuari ki tarah ki Abhimanyu na ho jaaye
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